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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
वे गाँव-गाँव, नगर-नगर पैदल भ्रमण करते हैं। अपनी इस विहार यात्रा में वे अनेक वस्तुओं को बड़े करीब से देखते हैं। आपने मालवा, राजस्थान, गुजरात आदि प्रांतों के विभिन्न ग्राम-नगरों में वर्षावास किये हैं। जहाँ-जहाँ आपने वर्षावास किया, उन ग्राम-नगरों तथा विहारक्रम में जिन ग्राम-नगरों में पधारे, उनमें से अधिकांश का ऐतिहासिक एवं भौगोलिक दृष्टि से वर्णन किया है। इतिहास लेखन से सम्बन्धित आप की निम्नांकित पुस्तकें है
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१. नाकोडा पार्श्वनाथ २. यतीन्द्रविहार दिग्दर्शन भाग १ से ३. कोरटा जी तीर्थ का इतिहास ४. मेरी निमाड़ यात्रा ५. मेरी गोड़वाड़ यात्रा ६. तीन स्तुति की प्राचीनता आदि। इस प्रकार आप ने इतिहास सम्बन्धी नौ पुस्तकों की रचना की।
तीर्थों के इतिहास में आपने केवल धार्मिक दृष्टि से ही लेखन नहीं किया, वरन आपका लेखन एक इतिहासकार की भाँति रहा है। इतिहासलेखन में साधनों का विशेष महत्त्व और उनमें भी पुरातात्त्विक साधन अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। आप इस तथ्य से भली भाँति परिचित थे, तभी तो आपने शिलालेखों और मूर्तिलेखों के संग्रह पर भी विशेष ध्यान दिया। शिलालेख तो जिस उद्देश्य को लेकर उत्कीर्ण कराये जाते हैं, उसका उनमें विस्तृत वर्णन होता है। वे अपने समय के दस्तावेज होते हैं। सामान्यतः शिलालेख नष्ट भी नहीं होते हैं किंतु प्रतिमा लेख प्रक्षाल के कारण घिस जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनका वाचन नहीं हो पाता है, जबकि प्रतिमालेख भी काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं। कारण कि उनमें तिथि, वार, संवत्, आचार्य या मुनिराज का नाम उनके गच्छ का नाम, गृहस्थ का नाम उसके परिवार के सदस्यों का नाम, कुल का विवरण, गाँव/नगर का नाम तथा जिस राजा के समय उस प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई उसका नाम भी उत्कीर्ण रहता है। एक छोटा सा प्रतिमालेख काफी महत्त्वपूर्ण होता है। आचार्य भगवन् ने शिलालेखों और प्रतिमालेखों के महत्त्व को जाना, समझा और उनका संग्रह किया। अपने लेखन में भी उनका उपयोग किया। यह उनके इतिहासकार होने का प्रमाण है।
यात्रियों के यात्रावृतांत को भी इतिहास के स्रोत के रूप में मान्यता प्राप्त है। हमारे देश में यूनान, चीन, अरव आदि विभिन्न देशों के यात्री आए और उन्होंने अपनी भारतयात्रा के संस्मरम् लिखे। उन्होंने यहाँ की व्यवस्था, धर्म, समाज आदि के विषय में जो लिखा वही हमारे इतिहासनिर्माण के साधन का एक अंग बन गया। जैसा कि ऊपर संकेत दिया जा चुकाहै और साधु ग्राम ग्राम, नगर - नगर भ्रमण करते हैं और विभिन्न स्थानों को बड़े निकट से देखते भी हैं। यह बात अलग है कि वे इस पर अपनी लेखनी नहीं चलाते हैं। किंतु कुछ जैनाचार्य अथवा मुनिराज ऐसे भी होते हैं जो इस स्थानों के ऐतिहासिक महत्त्व को देखते हुए, उस गाँव अथवा नगर के इतिहास को लिपिबद्ध कर लेते हैं। इतना ही नहीं वे वहां के पुरातात्त्विक महत्त्व के स्थानों, दर्शनीय स्थानों का भी सूक्ष्मता के साथ विवरण प्रस्तुत करते हैं। इतिहास में उसकी उपयोगिता पर भी अपने विचार प्रकट करते हैं। आचार्य भगवत् श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी ने अपने इस प्रकार के साहित्य में इतिहास विषयकजानकारियों पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
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