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यतीन्द्र सुरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य
जिनभद्र का वलभी से कोई संबंध अवश्य होना चाहिए । आचार्य जिनप्रभ लिखते हैं कि आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने मथुरा में देवनिर्मित स्तूप के देव की आराधना एक पक्ष की तपस्या द्वारा की और दीमक द्वारा खाए हुए महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया । इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र का संबंध वलभी के अतिरिक्त मथुरा से भी है ।
डॉ. उमाकांत प्रेमानंद शाह ने अंकोटक-अकोटा गाँव से प्राप्त हुई दो प्रतिमाओं के अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ये प्रतिमाएँ ई. सन् ५५० से ६०० तक के काल की हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि इन प्रतिमाओं के लेखों में जिन आचार्य जिनभद्र का नाम है, वे विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता क्षमाश्रमण आचार्य जिनभद्र ही हैं। उनकी वाचना के अनुसार एक मूर्ति के पद्मासन के पिछले भाग में 'ॐ देवधर्मोयं निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है और दूसरी मूर्ति के आभामंडल में 'ॐ निवृत्तिकुले जिनभद्र वाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है। इन लेखों से तीन बातें फलित होती हैं । १. आचार्य जिनभद्र ने इन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया होगा २. उनके कुल का नाम निवृत्तिकुल था ३. उन्हें वाचनाचार्य कहा जाता था। चूँकि ये मूर्तियाँ अंकोट्टक में मिली है, अतः यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय भड़ौच के आसपास भी जैनों का प्रभाव रहा होगा और आचार्य जिनभद्र ने इस क्षेत्र में भी विहार किया होगा । उपर्युक्त उल्लेखों में आचार्य जिनभद्र को क्षमाश्रमण न कहकर वाचनाचार्य इसलिए कहा गया है कि परम्परा के अनुसार वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर तथा वाचक एकार्थक शब्द माने गए हैं। " वाचक और वाचनाचार्य भी क हैं, अतः वाचनाचार्य और क्षमाश्रमण शब्द वास्तव में एक ही अर्थ के सूचक हैं।" इनमें से एक का प्रयोग करने से दूसरे का प्रयोजन भी सिद्ध हो ही जाता है।
आचार्य जिनभद्र निवृत्तिकल के थे। इसका प्रमाण उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलता। यह निवृत्तिकुल कैसे प्रसिद्ध हुआ, इसके लिए निम्नांकित कथानक का आधार लिया जा सकता है।
भगवान महावीर के १७वें पट्ट पर आचार्य वज्रसेन हुए थे। उन्होंने सोपारक नगर के सेठ जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी के चार पुत्रों को दीक्षा दी थी। उनके नाम इस प्रकार थे
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नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर । आगे जाकर इनके नाम से भिन्न-भिन्न चार प्रकार की परम्पराएँ प्रचलिति हुईं और उनकी नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति तथा विद्याधर कुलों के रूप में प्रसिद्ध हुई । "
इन तथ्यों के अतिरिक्त उनके जीवन से संबंधित और कोई विशेष बात नहीं मिलती। हाँ, उनके गुणों का वर्णन अवश्य उपलब्ध होता है। जीतकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेनगण अपन चूर्णि के प्रारंभ में आचार्य जिनभद्र की स्तुति करते हुए उनके गुणों का इस प्रकार वर्णन करते हैं
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'जो अनुयोगधर, युगप्रधान प्रधान ज्ञानियों से बहुमत, सर्व श्रुति और शास्त्र में कुशल तथा दर्शन - ज्ञानोपयोग के मार्गरक्षक हैं। जिस प्रकार कमल की सुगंध के वश में होकर भ्रमर कमल की उपासना करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूप मकरंद पिपासु मुनि जिनके मुखरूप निर्झर से प्रवाहित ज्ञानरूप अमृत का सर्वदा सेवन करते हैं।
स्व-समय तथा पर- समय के आगम, लिपि, गणित, छन्द और शब्दशास्त्रों पर किए गए व्याख्यानों से निर्मित जिनका अनुपम यशपटह दसों दिशाओं में बज रहा है। जिन्होंने अपनी अनुपम बुद्धि के प्रभाव ज्ञान, ज्ञानी, हेतु, प्रमाण तथा गणधरवाद का सविशेष विवेचन विशेषावश्यक में ग्रन्थनिबद्ध किया है। जिन्होंने छेदसूत्रों के अर्थ के आधार पर पुरुषविशेष के पृथक्करण के अनुसार प्रायश्चित्त की विधि का विधान करने वाले जीतकल्पसूत्र की रचना की है। ऐसे पर समय के सिद्धान्तों में निपुण, संयमशील श्रमणों के मार्ग के अनुगामी और क्षमाश्रमणों निधानभूत जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को नमस्कार हो । ७
इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि जिनभद्रगणि आगमों अद्वितीय व्याख्याता थे, 'युगप्रधान ' पद के धारक थे, तत्कालीन प्रधान श्रुतधर भी इनका बहुमान करते थे, श्रुत और अन्य शास्त्रों के कुशल विद्वान् थे। जैन- परम्परा में जो ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग का विचार किया गया है, उसके ये समर्थक थे। इनकी सेवा में अनेक मुनि ज्ञानाभ्यास करने के लिए सदा उपस्थित रहते थे। भिन्न-भिन्न दर्शनों के शास्त्र, लिपिविद्या, गणितशास्त्र, छंदः शास्त्र, शब्दशास्त्र आदि के ये अनुपम पंडित थे। इन्होंने विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पसूत्र की रचना की थी । ये पर- सिद्धान्त में निपुण, स्वाचारपालन में प्रवण और सर्व जैन श्रमणों में प्रमुख थे। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी आचार्य जिनभद्र
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