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---- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासकार्य में नियुक्त हो गए। सूतों द्वारा सुरक्षित वंशावली ही पुराणों की व्याख्या करते हए लिखा है कि इतिहास रोचक विषय है। में आई है। आगे चलकर वंशावली ऐतिहासिक रचना की प्रतिनिधि इसमें इतिवृत्त, ऐहित्य और आम्नाय भी सम्मिलित होता है। इसे विधा बन गई। वंशलेखन की परंपरा ई.पू. चौथी शताब्दी तक आर्ष भी कहते हैं, क्योंकि यह ऋषिप्रोक्त है। यह अच्छी और इनके द्वारा चलती रही। नंदों और मौर्यों के समय वैदिक यज्ञ मनोहरकथा वार्ता द्वारा धर्मशास्त्र का उपदेश करता है। बाद में
और कर्मकाण्ड शिथिल हो गए, तो वंश-रचना भी ठप हो गई। इतिहास में परिगणित कई शास्त्र जैसे पुराण, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र पुराणों से ही वंशावली लिखने की प्रेरणा बौद्धों और जैनों को आदि का स्वतंत्र विकास हुआ और इतिहास की अवधारणा भी मिली। बौद्ध-साहित्य में बुद्धवंश (सुत्तपिटक), दीपवंश और संकुचित हो गई। यह भूतकाल की घटनाओं का अभिलेख मात्र महावंश आदि रचनाएँ तथा जैनों में विमलसूरिकृत 'पउमचरिउ' समझा जाने लगा। इतिहास-लेखक राजदरबारी कर्मचारी हो या हरिवंश आदि वंशानुचरित ग्रन्थ है। परवर्ती जैन-साहित्य में गए। परिणामतः इतिहास की अवधारणा में बड़ा फर्क पड़ा। इस प्रकार के चरित-काव्य प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। संस्कृत, पहले इतिहास का जो व्यापक स्वरूप था वह संकुचित हुआ। प्राकृत और अपभ्रंश में लिखे गए पुराणों की संख्या भी बहत है। पहले इतिहास को वह पुरावृत्त माना जाता था, जिसमें नैतिक, इनमें हेमचन्द्रकृत परिशिष्टपर्वन, प्रमुख है, जिसमें आचार्यों, आध्यात्मिक, लौकिक और सौन्दर्यमूलक प्रेरण महापुरुषों की जीवनियाँ तो हैं ही, साथ ही साथ मौर्यकालीन वह ऐसा विवरण मात्र रह गया जिसमें आश्रयदाता राजा के इतिहास भी है। इसी क्रम में त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रताप और विजयों की गाथा प्रमुख रूप से अतिशयोक्ति-पूर्वक प्रभावकचरित आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं।
वर्णित हो। रानियों को राजश्री का पर्याय मानकर हर विजय के धीरे-धीरे भारतीय इतिहास-लेखन की मूल अवधारणा
साथ एक रानी की प्राप्ति, उसके सौंदर्य-शृंगार की चर्चा एक लुप्त होने लगी। सूतों का महत्त्व घट गया फिर भी वंशावलियाँ
काव्य रुढ़ि बन गई। लेखक इतिहासकार नहीं बल्कि कवि बन रखी जाती थीं। अर्थशास्त्र में राजकीय अभिलेखों को रखने के
गया। कल्पना का विस्तार हुआ, इतिहास सिकुड़ता गया, यथातथ्य लिए 'गोप' नामक पदाधिकारी की चर्चा मिलती है। ये गोप वर्णन बाधित होता गया। तिथिक्रम और वंशानक्रम को इस दस-पाँच गाँवों के निवासियों का आर्थिक, व्यापारिक, सामाजिक
प्रवृत्ति ने सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया। प्रायः इतिहासकारों विवरण रखते थे। हेनसांग ने इस प्रकार के अभिलेख 'नि-लो- ने कवि की भूमिका का निर्वाह अधिक किया, इतिहासकार के पी-वा' देखे थे, जिनमें दैवी आपदाओंतथा प्रजा की स्थिति का '
व कर्तव्य का पालन कम किया। विवरण रहता था। नगरकोट के किले में शाही वंश की वंशावली पाश्चात्य विचारकों में संभवत: 'हेरोडोटस' ने सर्वप्रथम अल्बरूनी ने भी देखी थी। प्रशासन में एक स्वतंत्र विभाग 'हिस्ट्री' शब्द का प्रयोग किया। इस शब्द में स्टोरी (Story) भी अक्षपटलिक के अधीन यही काम करता था। मौर्यों ने पुरालेख- आख्यान या पुरावृत्त का सूचक है। अत: रेनियर और हेनरी पेरी संग्रहालयों की परिपाटी चलाई थी। यहीं से लेखकों ने पुराणों जैसे लेखक मानते हैं कि समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों के लिए सामग्री एकत्रित की। संभवतः इसीलिए विभिन्न पुराणों एवं उनकी उपलब्धियों की कहानी ही इतिहास है। इतिहास को
। छोड़कर प्रायः एकरूपता है। हमारे पुराण अतीत और वर्तमान का सेतु बताते हुए जॉन डिबी दोनों पर ग्रन्थों तथा इतिहास-ग्रन्थों में केवल इतिवृत्त ही नहीं रहता था, दोनों का अन्योन्य प्रभाव स्वीकार करते हैं। हमने राजधर्म एवं अर्थात् ऐतिहासिक व्यक्तियों और पात्रों का विवरण ही नहीं आध्यात्मिकता को प्रधान मानकर प्रारंभ में धार्मिक इतिहास दिया जाता था, बल्कि उनकी रानजीतिक, सामाजिक, नैतिक लिखा, बाद में राजनैतिक लेखन भी हुआ पर यहाँ की तुलना में
और आर्थिक परंपराओं का वर्णन तथा तत्संबंधी संस्थाओं के पश्चिम में प्रारंभ से ही भौतिक जगत् को प्रधान मानकर राजनीतिक क्रिया-कलाप भी वर्णित रहते थे। महाभारत को इसी अर्थ में और सामाजिक इतिहास लिखा गया। उसी को यथार्थ और इतिहास कहा गया है।
वैज्ञानिक इतिहास की संज्ञा दी गई और हमारे पुराण-इतिहासप्रमुख जैन-इतिहासकार जिनसेन ने 'आदिपुराण' में इतिहास
ग्रंथों को काल्पनिक और अनैतिहासिक घोषित कर दिया गया। ग्रथा पुराणों में वैवस्वत मनु से लेकर महाभारत-काल तक के राजवंशों
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