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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासकरती है, जिसकी सहायता से वह अपने मनोरथों को पूर्ण करता बिना अध्ययन किए शिक्षा की प्राप्ति शायद ही संभव हो। चाहे है। मनोरथों का जाल बहुत घना है। आसक्ति इसे और भी यह पारंपरिक विधि से ग्रहण किया गया हो अथवा गैर परंपरागत कठिन बना सकती है। शिक्षा मनुष्य को इसका बोध कराती है विधि से। आत्मा को धर्म में स्थित किए बिना आत्म-साक्षात्कार
और व्यक्ति अनासक्त भाव से अपने प्रयोजनों को पूर्ण करता संभव नहीं है। आत्म-साक्षात्कार किए बिना चरमपद भी नहीं है। उसकी यही अनासक्ति कामरूप फल से रहित सम्पदाओं पाया जा सकता है। अतः अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने की परंपरा उत्पन्न करती है।
और चरमपद की अभिलाषा रखने वालों को शिक्षा रूपी प्रकाश शिक्षा एक सामाजिक संविदा है। यह मनुष्य को समाज
से युक्त होना चाहिए। द्वारा स्वीकृत मूल्यों और मान्यताओं से अवगत कराती है। यह यहाँ चरमपद से हमारा तात्पर्य मनुष्य की उस अवस्था से मनुष्य की मानसिक जिज्ञासाओं को शांत रखने का मार्ग सुलभ है, जहाँ वह, पूर्ण ज्ञानी है। अत: उसे समस्त प्रकार के बोधों से कराती है। जिन पर चलकर वह विविध प्रकार के कला-कौशल युक्त होना चाहिए। वह परम सत्य की ज्योति का साक्षात्कार का ज्ञान प्राप्त करता है। वह जितना ही अधिक इस दिशा में करने की अवस्था से युक्त हो। इस रूप में शिक्षा का व्यापक अग्रसर होता है, उतना ही अधिक सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करता जाता अर्थ माना जाता है तथा इसकी एक विशेष विधि भी मान्य की है। शिक्षा के कारण उसके अंतर्मन के चक्षु इतने अधिक विकसित गई है। यह विधि है श्रवण, मनन और निविध्यासन । इस विधि हो जाते हैं, कि वह विभिन्न प्रकार के रहस्यों को उद्घाटित करने को अपनाकर व्यक्ति पूर्ण बोध से युक्त हो जाता है। वह परम लगता है। महाभारत में कहा भी गया है कि शिक्षा के समान सत्य की ज्योति का साक्षात्कार करने लगता है। वह अपने कोई तीक्ष्ण चक्षु नहीं है। शिक्षा की यह तीक्ष्णता ही उसकी स्वरूप में रमण करने लगता है। वह आत्मधर्म की अवस्था से शक्ति है। उसकी शक्ति की इस परिधि से संसार का कोई भी अवगत होने लगता है। उसके जीवन का परम लक्ष्य क्या है? तत्त्व बाहर नहीं जा सकता। सम्पूर्ण तत्त्वों का दिग्दर्शन शिक्षा के वह कौन है? आदि कितने ही महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के समाधान की द्वारा संभव है। इसीलिए ज्ञान (शिक्षा) को मनुष्य का तृतीय नेत्र ओर अग्रसर होता है। थोड़े शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि कहा जाता है, जो सभी प्रकार के तत्त्वों के दिग्दर्शन की क्षमता शिक्षा का एक रूप मनुष्य को उसके परम लक्ष्य या ध्येय से रखता है। ज्ञान (शिक्षा) व्यक्ति में शक्ति का संचार करता है, अवगत कराना भी है। जिसकी सहायता से वह यथार्थ-अयथार्थ, सम्यक् असम्यक्
उपर्युक्त चिंतन शिक्षा के विविध रूपों को स्पष्ट करता है, तत्त्वों के स्वरूप से अवगत होता है। वह इस स्तर पर अपने को जो इसके विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालता है। शिक्षा के निम्न प्रतिष्ठापित कर लेता है कि हेय-उपादेय के बीच अंतर स्थापित
तर स्थापित लिखित स्वरूप हो सकते हैं--१. मूल्यों और सामाजिक कर सके।
मान्यताओं का निर्धारण करने वाली एक सामाजिक प्रक्रिया, २. प्रकाश और अंधकार मानव जीवन के दो विरोधी पक्ष हैं। मनुष्य को उसके कर्त्तव्यों से अवगत कराने वाली एक विधि, प्रायः मनुष्य प्रकाश को ही अपनाना चाहता है। अंधकार को ३. अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर विविध प्रकार के कला, अज्ञान अथवा अशिक्षा का पर्याय माना गया है। शिक्षा के द्वारा कौशल, विज्ञान एवं तकनीक से मनुष्य को समृद्ध करने वाली अज्ञानरूपी इस अंधकार को मिटाया जा सकता है। इसीलिए क्रिया, ४. मनुष्य को सांसारिक वैभव, सुख-समृद्धि प्रदान बहुधा यह कहा गया है कि मनुष्य को शिक्षा रूपी प्रकाश से कराने वाली प्रक्रिया, ५. मनुष्य के अंत: और बाह्य व्यक्तित्व युक्त होना चाहिए। शिक्षा का यह प्रकाश मानव-जीवन में का निर्माण, ६. आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने वाली मूलभूत परिवर्तन ला सकता है। वह उसे चरमपद पर आरूढ़ क्रियाएँ, ७. मनुष्य को आत्मस्वरूप में स्थित करना, ८. परम करा सकता है। आत्म-साक्षात्कार करा सकता है। दशवैकालिक सत्य की ज्योति का साक्षात्कार कराना आदि। प्रत्येक रूप में में कहा गया है-- आत्मा को धर्म में स्थापित करने के लिए शिक्षा मनुष्य के लिए अत्यंत उपयोगी है, जिसका मुख्य प्रयोजन अध्ययन करना चाहिए। अध्ययन शिक्षा का अविभाज्य अंग है। मनुष्य को लौकिक एवं पारलौकिक सुख प्रदान करना है।
శాంగశారతరతరంగమందు తారురురురురురురుసారం 4 పాదరువారం సాగురువారం సాయగురువారం
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