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वैदिक एवं श्रमण-वाङ्मय में नारी-शिक्षा
डॉ. सुनीता कुमारी....
बी.एस.एम.कॉलेज, रुड़की
क्षा प्राप्त करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया अथवा ब्रह्म-प्राप्ति है। वस्तुतः शिक्षा का यही वास्तविक स्वरूप श में समाज के सभी सदस्य सहभागी बन सकते हैं। इसमें है। ब्रह्म वह चरम सत्ता है जिसमें समस्त भासमान जगत् परिव्याप्त किसी प्रकार का भेद नहीं होना चाहिए, परंतु दुर्भाग्यवश इस है। शिक्षा के द्वारा इस ब्रह्म को प्राप्त कर मनुष्य समस्त संसार क्षेत्र में विविध प्रकार के भेद किए गए हैं। कभी जन्म के आधार को अपने गुणों से परिव्याप्त कर देता है। पर, कभी वर्ण के आधार पर, कभी कर्म के आधार पर इस
. मनुष्य के समक्ष लौकिक एवं आध्यात्मिक ये दो प्रकार प्रकार के विभिन्न भेद शिक्षा के क्षेत्र में मिल जाते हैं। यद्यपि इन की आवश्यकताएँ रहती हैं। इन दोनों की सम्यक पर्ति करना सबके कई कारण बताए जाते हैं, लेकिन आज ये मान्यताएँ
मनुष्य का धर्म है। शिक्षा मनुष्य को उसके इस धर्म से अवगत लगभग समाप्तप्राय हो गई हैं। आज जो भी व्यक्ति शिक्षा ग्रहण कराती है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है। - ज्ञान (शिक्षा) की करना चाहता है, वह विविध प्रकार की शिक्षाओं को प्राप्त कर
प्रतिष्ठा बनाए रखना व्यक्ति का नैतिक धर्म है। स्वाध्याय एवं सकता है। नारी-शिक्षा भी आज एक ज्वलंत प्रश्न है। प्राचीनकाल प्रवचन से मनष्य का चित्त एकाग्र हो जाता है। वह स्वतंत्र बन से लेकर आज तक स्त्रियों ने शिक्षा-जगत् के विभिन्न क्षेत्रों में। जाता है। नित्य उसे धन प्राप्त होता है। वह सुख से सोता है। वह अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। सभी ने उसकी बुद्धिमत्ता
अपना परम चिकित्सक बन जाता है। वह इंद्रियों पर संयम रखने और कुशलता को सराहा है। लेकिन यहाँ ऐसे उदाहरणों की भी
की कला से अवगत हो जाता है। उसकी प्रज्ञा बढ़ती है। वह यश कमी नहीं है, जहाँ स्त्रियों को शिक्षा ग्रहण करने से रोका गया है।
को प्राप्त करता है। शतपथ ब्राह्मण का यह कथन शिक्षा के उनकी प्रतिभा को दबाकर उनकी भावनाओं को कुण्ठित करने स्वरूप को स्पष्ट कर देता है। यहाँ शिक्षा इंद्रियसंयम, यशवृद्धि, का प्रयत्न हुआ है। इनके चाहे जो भी कारण रहे हों, परंतु
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प्रज्ञावृद्धि, चित्त-एकाग्र तथा नैतिक धर्म इन सबको प्राप्त कराने सामाजिक सुव्यवस्था हेतु स्त्रियों का शिक्षित होना अत्यंत की मामय से यक
ना अत्यत की सामर्थ्य से युक्त मानी गई है। इन विविध रूपों में शिक्षा आवश्यक है। क्योंकि वास्तव में स्त्रियों को ही गृहस्थी की
मनुष्य को लौकिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख भी सुव्यवस्थित संचालिका एवं समाज की नीति-निर्देशिका होने प्राप्त कराती है। क्योंकि शतपथ ब्राह्मण में शिक्षा को धन प्राप्त का गौरव प्राप्त है।
कराने वाला एवं सुखपूर्वक निद्रा दिलाने वाला भी कहा गया है। शिक्षा का स्वरूप
जैन-परंपरा में शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा शिक्षा का अर्थ 'सीखना' है। सीखने की यह प्रक्रिया गया है। - शिक्षा मनुष्य को पूर्ण करने वाली कामधेनु है। शिक्षा मनुष्य के जन्म लेने से ही प्रारंभ हो जाती है और मृत्यपर्यंत ही चिंतामणि है। शिक्षा ही धर्म है तथा कामरूप फल से रहित चलती रहती है। उसकी सीखने की यह प्रवृत्ति ही उसे सुसंस्कृत सम्पदाओं की परंपरा उत्पन्न करती है। शिक्षा ही मनुष्य का बंधु बनाती है और वह नैष्ठिक आचरण की ओर प्रवृत्त होता है। है, शिक्षा ही मित्र है, शिक्षा ही कल्याण करने वाली है, शिक्षा ही उसकी यह प्रवृत्ति उसके व्यक्तित्व का निर्धारक होने के साथ- साथ ले जाने वाला धन है और शिक्षा ही सब प्रयोजनों को सिद्ध साथ उसकी सामाजिक अभिवृत्ति का भी परिचय देती है। करने वाली है। मनुष्य अपने आप में कभी पूर्ण नहीं हो सकता, प्राचीनकाल में भारतीय चिंतकों ने मनुष्य की आध्यात्मिक लेकिन शिक्षा उसकी अपूर्णता को दूर कर उसे पूर्ण बनाती है। वृत्ति को उसके व्यक्तित्व-निर्माण एवं सामाजिक अभिप्रेरणा मनुष्य के समक्ष विविध प्रकार की समस्याएँ रहती हैं, जिन्हें वह का मूल कारण माना है, जिसकी अंतिम परिणति मोक्ष, कैवल्य हल नहीं कर पाता है। परंतु शिक्षा उसे एक ऐसा माध्यम प्रदान
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