SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८००५ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य इसके साक्षी बंध और संक्रम आदि अधिकार हैं। यतः टीका का नाम आचार्य श्लोक प्रमाण शताब्दी महाबंध में चारों प्रकारों के बंधों का अतिविस्तृत विवेचन उपलब्ध परिकर्म आचार्य कुन्दकुन्द १२००० द्वितीय शताब्दी था, अतः उसे एक सूत्र में ही कह दिया कि यह चारों प्रकार का बंध बहुशः प्ररूपित है, किन्तु संक्रमण सत्त्व उदय और उदीरणा पद्धति आचार्य शामकुण्ड १२००० तृतीय शताब्दी का विस्तृत विवेचन उनके समय तक किसी ग्रंथ में निबद्ध नहीं चूडामणि आचार्य तुम्बुलूर ९१००० चौथी शताब्दी हुआ था, अतएव उनका प्रस्तुत चूर्णि में बहुत विशद एवं विस्तृत चूडामणि समन्तभद्राचार्य पंचम शताब्दी वर्णन किया है। इसी से यह ज्ञात होता है कि यतिवृषभ का आगमिक ज्ञान कितना अगाध, गम्भीर और विशाल था। व्याख्याप्रज्ञप्ति वप्पदेवगुरु ८००० षष्ठ शताब्दी - धवला यतिवृषभ को आर्यभक्षु और नागहस्ति जैसे अपने समय आचार्य वीरसेन आठवीं शताब्दी ७२००० के महान् आगम वेत्ता और कषायपाहुड के व्याख्याता आचार्यो महाधवला आचार्य जिनसेन xxx नवम् शताब्दी से प्रकृत विषय का विशिष्ट उपदेश प्राप्त था, तथापि उनके सामने और भी कर्मविषयक आगमसाहित्य अवश्य रहा है, जिसके आचार्य यतिवृषभ आधार पर वे अपनी प्रौढ़ और विस्तृत चूर्णि को सम्पन्न कर सके हैं जयधवलाकार के उल्लेखानुसार आचार्य यतिवृषभ ने और कषायपाहुड की गाथाओं में एक-एक पद के आधार पर आर्यभक्षु और नागहस्ति के पास कषायपाहुड की गाथाओं का एक-एक स्वतंत्र अधिकार की रचना करने में समर्थ हो सके हैं। सम्यक् प्रकार अर्थ अवधारण करके सर्वप्रथम उन चूर्णिसूत्रों आचार्य यतिवषभ की दूसरी कृति के रूप से तिलोयपण्णत्ती की रचना की। श्वेताम्बर-ग्रंथों में एक स्थान पर चूर्णिपद का प्रसिद्ध है और वह सानुवाद मुद्रित होकर प्रकाशित है। कम्मपयडी लक्षण इस प्रकार दिया गया है - की गाथाओँ को कषायपाहुड चूर्णि का आधार बनाया गया है। इस अत्थबहुलं महत्थं हेउ निवाओवसग्गगंभीरं। आधार पर कम्मपयडी भी यतिवृषभ कृत मानी जाती है। इसी बहुपायमवोच्छिन्नं गम नय सुद्धं तु चुण्णपयं ॥ प्रकार सतक और सित्तरी के रचयिता यतिवृषभ कहे गए हैं। अर्थात् जो अर्थ-बहुल हो, महान् अर्थका धारक या प्रतिपादक यतिवृषभ आचार्य पूज्यपाद से पूर्व हुए हैं। इसका कारण हो, हेत, निपात और उपसर्ग से युक्त हो, गम्भीर हो, अनेक पाद. यह है कि उन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धि में उनके एक मत विशेष समन्वित हो, अव्यवच्छिन्न हो अर्थात् जिसमें वस्तु का स्वरूप का उल्लेख किया है। धारा प्रवाह से कहा गया हो तथा जो अनेक प्रकार के जानने के 'अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेष नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया उपाय और नयों से शद्ध हो, उसे चूर्णि सम्बन्धी पद कहते हैं। द्वादश भागा न दत्ता। चूर्णिसूत्रों की रचना संक्षिप्त होते हुए भी बहुत स्पष्ट, प्राजल और प्रौढ़ है, कहीं एक शब्द का भी निरर्थक प्रयोग नहीं हुआ है। अर्थात् जिन आचार्यों के मन से सासादन गुणस्थानवर्ती कहीं-कहीं संख्यावाचक पद के स्थान पर गणनाड़ों का भी जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मत की अपेक्षा प्रयोग किया गया है, तो जयधवलाकार ने उसकी भी महत्ता और १२/१४ भाग स्पर्शन क्षेत्र नहीं कहा गया है। सार्थकता प्रकट की है। चूर्णिसूत्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सासादन गणस्थान वाला मरे तो कि चर्णिकार के सामने जो आगम सूत्र उपस्थित थे और उनमें नियम से देवों में उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवषभ का मत जिन विषयों का वर्णन उपलब्ध था, उन विषयों को प्रायः है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि आचार्य यतिवषभ आचार्य पज्यपाद यतिवृषभ ने छोड़ दिया है, किन्तु जिन विषयों का वर्णन उनके से पहले हए हैं। चूँकि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि ने वि.सं. सामने उपस्थित आगमिक साहित्य में नहीं था और उन्हें जिनका ५२६ में द्रविड़ संघ की स्थापना की है और यतिवृषभ के मत विशेष ज्ञान गुरुपरम्परा से प्राप्त हुआ था, उनका उन्होंने प्रस्तुत । का पूज्यपाद ने उल्लेख किया है, अतः उनका वि.सं. ५२६ के चूर्णि में विस्तार से वर्णन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy