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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार
सिद्धि के लिए भी जैन-परम्परा में मंत्र, जप, पूजा आदि प्रारम्भ हो गये खी खू खाँ ख: ग्रीवां भञ्जय भञ्जय, छम्ल्व्यूँ छाँ छी छु छौं छ: थे। उपरोक्त पद्मावतीस्तोत्र के अतिरिक्त भैरवपद्यावतीकल्प में परिशिष्ट के अन्तराणि छेदय छेदय, ठम्ल्व्यूँ ट्रांहूँ छौं ठः महाविद्यापाषाणास्त्रैः हन रूप में प्रस्तुत निम्न ज्वालामालिनी मन्त्र स्तोत्र से भी इस कथन की पुष्टि हन, बल्व्यूँ ब्राँ ब्रों बूं बौँ ब्रः समुद्रे! जम्भय जृम्भय, झाँ झ: घाँ डॉ घ्रः होती है। यह स्तोत्र निम्न है-१३
सर्वडाकिनी: मर्दय मर्दय, सर्वयोगिनी: तर्जय तर्जय, सर्वशत्रून् प्रस प्रस, ॐ नमो भगवते श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय शशाङ्कशखगोक्षी- खं खं खं खं खं खं खादय खादय, सर्वदैत्यान् विध्वंसय विध्वंसय रहारधवलगात्राय धातिकर्मनिर्मलोच्छेदनकराय जातिजरामरणविनाशनाय सर्वमृत्यून् नाशय नाशय, सर्वोपद्रव महाभय स्तम्भय स्तम्भय, दह २ वैलोक्यवशङ्कराय सर्वासत्त्वहितकण्य सुरासुरेन्द्रमुकुट- कोटिघृष्टापादपीठाय पंच २ मथ २ यय: २ धम २ धरू २ खरू २ खगरावणसुविधा घातय संसारकान्तारोन्मूलनाय अचिन्त्यबलपराक्रमाय अप्रतिहतचक्राय त्रैलोक्यनाथाय २ पातय २ सच्चन्द्रहासशस्त्रेण छेदय २ भेदय २ झरू २ छरू २ हरू देवाधिदेवाय धर्मचक्राधीश्वराय सर्वविद्यापरमेश्वराय कुविद्यानिधनाय, २ फट २ घे हाँ हाँ आँ क्रों क्ष्वीं ह्रीं क्लीं ब्लूँ द्रां द्रीं क्रॉ क्षी क्षों क्षी
तत्पादपङ्कजाश्रमनिवेविणि! देवि! शासनदेवते! त्रिभुवनसझो- ज्वालामालिनी आज्ञापयति स्वाहा ॥इति सर्वरोगहरस्तोत्रम्।। मिणि! त्रैलोक्याशिवापहारकारिणि! स्थावरजङ्गमविषमविषसंहारकारिणि! इससे स्पष्ट है कि जैन-परम्परा ने किन्हीं स्थितियों में हिन्दू सर्वाभिचारकर्माम्यवहारिणि! परविद्याच्छेदिनि! परमन्त्रप्रणाशिनि! तान्त्रिक परम्परा का अन्धानुकरण भी किया है और अपने पूजा-विधान अष्टमहानागकुलोच्चाटनि! कालदुष्टमृतकोत्थापिनि! सर्वविघ्नविनाशिनी! में ऐसे तत्त्वों को स्थान दिया है, जो उसकी आध्यात्मिक, निवृत्तिप्रधान सर्वरोगप्रमोचनि! ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रचन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रोत्पातमरणभय- और अहिंसक दृष्टि के प्रतिकूल हैं, फिर भी इतना अवश्य है कि इस पीडासम्मर्दिनि! त्रैलोक्यमहिते! भव्यलोकहितकरि। विश्वलोकवशङ्करि! अत्र प्रकार पूजा-विधान तीर्थंकरों से सम्बन्धित न होकर प्राय: अन्य देवीमहाभैरवरुपधारिणी! महाभीमे! भीमरूपधारिणी! महारौद्रि! रौद्ररूपधारिणी! देवताओं से ही सम्बन्धित है। प्रसिद्धसिद्धविद्याधरयक्षराक्षसगरुडगन्धर्वकिनकिं-पुरुषदैत्योरगरुद्रेन्द्रपूजिते! प्रस्तुत स्तोत्र की भी यही विशेषता है कि इसके प्रारम्भ में ज्वालामालाकरालितदिगन्तराले! महामहिषवाहने! खेटककृपाणत्रिशूलहस्ते! जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए उनमें आध्यात्मिक विकास की कामना की शक्तिचक्रपाशशरासनविशिखपविराजमाने! षोडशार्द्धभुजे! एहि एहि हल्ल्यूँ गई है। लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना अथवा मारण, मोहन, ज्वालामालिनि! ह्रीं क्लीं ब्लूं फट् द्राँ द्रीं ह्रीं ह्रीं हूँ हैं ह्रौं ह्र: ह्रीं देवान् वशीकरण आदि की सिद्धि की कामना तो मात्र उनकी शासन-देवी आकर्षय, आकर्षय, सर्वदुष्टाहान् आकर्षय आकर्षय, नागग्रहान् आकर्षय ज्वालामालिनी से की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि परवर्ती आकर्षय, यक्षग्रहान् आकर्षय आकर्षय, राक्षसग्रहान् आकर्षय आकर्षय, जैनाचार्यों ने भी तीर्थकर-पूजा का प्रयोग तो आत्मविशुद्धि ही माना है, गान्धर्वग्रान् आकर्षय आकर्षय, गान्धर्यग्रहान् आकर्षय आकर्षय, ब्रह्मग्रहान् किन्तु लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए यक्ष-यक्षी, नवग्रह, दिक्पाल आकर्षय आकर्षय, भूतग्रहान् आकर्षय आकर्षय, सर्वदुष्टान् आकर्षय एवं क्षेत्रपाल (भैरव) की पूजा सम्बन्धी विधान भी निर्मित किये हैं। यद्यपि आकर्षय, चोरचिन्ताग्रहान् आकर्षय आकर्षय, कटकट कम्पावय कम्पावय, ये सभी पूजा-विधान हिन्द-परम्परा से प्रभावित हैं और उनके समरूप भी शीर्ष चालय चालय, बाहुं चालय चालय, गात्रं चालय चालय, पार्ट्स हैं। चालय चालय, सर्वाङ्ग चालय चालय, लोलय लोलय, धूनय धूनय, पूजा-विधानों के अतिरिक्त अन्य जैन-अनुष्ठानों में श्वेताम्बर कम्पय कम्पय, शीघ्रमवतारं गृह गृण्ह, ग्राहय ग्राहय, अचेलय अचेलय, परम्परा में पर्युषणपर्व, नवपदओली, बीस स्थानक की पूजा आदि आवेशय आवेशय इम्ल्व्यू ज्वालामालिनि! ह्रीं क्लीं ब्लूँ द्राँ द्रीं ज्वल सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले जैन-अनुष्ठान हैं। उपधान नामक तपज्वल र र र र र र रां प्रज्वल, प्रज्वल हूँ प्रज्वल प्रज्वल, अनुष्ठान भी श्वेताम्बर-परम्परा में बहुप्रचलित हैं। आगमों के अध्ययन एवं धगधगधूमान्धकारिणी! ज्वल ज्वल, ज्वलितशिखे! देवग्रहान् दह दह, आचार्य आदि पदों पर प्रतिष्ठित होने के लिए भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गन्धर्वग्रहान् दह दह, यक्षग्रहान् दह दह, भूतग्रहान् दह दह, ब्रह्मराक्षसग्रहान् जैन-संघ में मुनियों को कुछ अनुष्ठान करने होते हैं, जिनको सामान्यतया दह दह, व्यन्तरमाहन् दह दह, नागग्रहान् दह दह, सर्वदुष्ट महान् दह दह, 'योगोद्वहन एवं सूरिमंत्र की साधना कहते हैं। विधिमार्गप्रपा में दशवैकालिकसूत्र, शतकोटिदैवतान् दह दह, सहस्रकोटिपिशाचराजान् दह दह, घे घे स्फोटय उत्तराध्ययनसूत्र, आचारंगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, स्फोटय, मारय मारय, दहनाक्षि! प्रलय प्रलय, धगधगितमुखे! ज्वालामालिनी! निशीथसूत्र, भगवतीसूत्र आदि आगमों के अध्ययन सम्बन्धी अनुष्ठानों हाँ ह्रीं हं ह्रौं ह्रः सर्वग्रहहृदयं दह दह, पच पच, छिन्द छिन्द भिन्धि एवं कर्मकाण्डों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। भिन्धि हः हः हा: हा: हे: हे: हुं फट् फट् घे घे क्षम्ल्व्यू क्षाँ क्षीं ा क्षौं क्षः दिगम्बर-परम्परा में प्रमुख अनुष्ठान या व्रत निम्न हैंस्तम्भय स्तम्भय, हा पूर्व बन्धय बन्धय, दक्षिणं बन्धय बन्धय, पश्चिमं दशलक्षणव्रत, अष्टाह्निकाव्रत, द्वारावलोकनव्रत, जिनमुखावलोकनव्रत, बन्धय बन्धय, उत्तरं बन्धय बन्धय, भल्ल्यू भ्रां प्री | श्रौं भ्रः ताडय जिनपूजाव्रत, गुरुभक्ति एवं शास्त्रभक्तिव्रत, तपांजलिव्रत, मुक्तावलीव्रत, ताडय, मल्व्यू माँ म्री नौं म्र: नेत्रे यः स्फोटय स्फोटय, दर्शय दर्शय, कनकावलिव्रत, एकावलिव्रत, द्विकावलिव्रत, रत्नावलीव्रत, मुकुटसप्तमीव्रत, हल्व्यं प्रां प्री पूँ प्रौं प्रः प्रेषय प्रेषय, एल्यू प्रां प्रीं धूं प्राँ घ्र: जठरं भेदय सिंहनिष्क्रीडितव्रत, निर्दोषसप्तमीव्रत, अनन्तव्रत, षोडशकारणव्रत, भेदय, झल्ल्यू झाँ झू झी झों झः मुष्टिबन्धेन बन्धय बन्धय, खल्यूँ खाँ ज्ञानपच्चीसीव्रत, चन्दनषष्ठीव्रत, रोहिणीव्रत, अक्षयनिधिव्रत, पंचपरमेष्ठिव्रत,
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