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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारप्रयोजनभेद से इसका स्वरूप बदलता भी है। जैसे:
विविधदुःखविनाशी दुष्टदाविपाशी. ___ॐ ह्रीं अहं परमात्मने अन्तरायकर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर कलिमलभवक्षाली भव्यजीवकृपाली । जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा।
असुरमदनिवारी देवनागेन्द्रनारी . ऊँ ह्रीं अहं परमात्मने अनन्तान्तज्ञानशक्तये श्री समकितव्रतदृढ जिनमुनिपदसेव्यं ब्रह्मपुण्याब्धिपूज्यम् ।११।। करणाय/प्राणातिपातविरमणव्रतग्रहणाय जलं यजामहे स्वाहा।
ॐ आँ ह्रीं मन्त्ररूपायै विश्वविघ्नहरणायै सकलजन हितकारिकायै इसी प्रकार अष्टद्रव्यों के समर्पण में भी प्रयोजन की भिन्नता श्री पद्मावत्यै जयमालार्थ निर्वापामीति स्वाहा । परिलक्षित होती है:
लक्ष्मीसौभाग्यकरा जगत्सुखकरा बन्ध्यापि पुत्रार्पिता ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशाय जलं निर्वापमिति स्वाहा। नानारोगविनाशिनी अघहरा (त्रि) कृपाजने रक्षिका । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय भवतापविनाशाय चंदन निर्वापमिति स्वाहा।
रङ्गानां धनदायिका सुफलदा वाञ्छार्थिचिन्तामणि: ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वापमिति स्वाहा।
त्रैलोक्याधिपतिर्भवार्णवत्राता पद्यावती पातु वः ॥१२॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वापमिति स्वाहा।
इत्याशीर्वादः
स्वस्तिकल्याणभद्रस्तु क्षेमकल्याणमस्तु वः । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वापमिति स्वाहा।
यावच्चन्द्रदिवानाथौ तावत् पद्मावतीपूजा ॥१३॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अपकर्मदहनाय धूपं निर्वापमिति स्वाहा।
ये जनाः पूजन्ति पूजां पद्मावती जिनान्विता । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वापमिति स्वाहा।
ते जनाः सुखमायान्ति यावन्मेरुर्जिनालयः ।।१४।। इन पूजा मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि जैन-परम्परा से इन
प्रस्तुत स्तोत्र में पद्मावती-पूजन का प्रयोजन वैयक्तिक एवं सभी पूजा-विधानों का अन्तिम प्रयोजन तो आध्यात्मिक विशुद्धि ही लौकिक एषणाओं की पर्ति तो है ही, इससे भी एक कदम आगे बढ़कर माना गया है। यह माना गया है कि जलपूजा आत्मविशुद्धि के लिए की
इसमें तत्र के मारण, मोहन, वशीकरण आदि षट्कर्मों की पूर्ति की जाती है। चन्दनपूजा का प्रयोजन कषायरूपी अग्नि को शान्त करना
आकांक्षा भी देवी से की गई है। प्रस्तुत पद्मावतीस्तोत्र का निम्न अंश अथवा समभाव में अवस्थित होना है। पुष्पपूजा का प्रयोजन अन्त:करण
इसका स्पष्ट प्रमाण हैमें सद्भावों का जागरण है। धूपपूजा कर्मरूपी इन्धन को जलाने के लिये
ॐ नमो भगवति! त्रिभुवनवशंकारी सर्वाभरणभूषिते पद्यनयने! है, तो दीपपूजा का प्रयोजन ज्ञान के प्रकाश को प्रकट करना है।
पद्मिनी पद्मप्रमे! पद्मकोशिनि! पद्मवासिनि! पद्महस्ते! ह्रीं ह्रीं कुरु कुरु अक्षतपूजा का तात्पर्य अक्षतों के समान कर्म के आवरण से रहित अर्थात्
कम क आवरण स राहत अथात् मम हृदयकायं कुरु कुरु, मम सर्वशान्तिं कुरु कुरु, मम सर्वराज्यवश्य निरावरण होकर अक्षय पद प्राप्त करना है। नैवेद्यपूजा का तात्पर्य चित्त
कुरु कुरु, सर्वलोकवश्यं कुरु कुरु, मम सर्व स्त्रीवश्यं कुरु कुरु, मम में आकांक्षाओं और इच्छाओं की समाप्ति है। इसी प्रकार फलपूजा
सर्वभूतपिशाचप्रेतरोष हर हर, सर्वरोगान् छिन्द छिन्द, सर्वविघ्नान् भिन्द मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये की जाती है। इस प्रकार जैन-पूजा की
भिन्द, सर्वविर्ष छिन्द छिन्द, सर्वकुरुमगं छिन्द छिन्द, सर्वशाकिनी छिन्द विधि में और हिन्दुभक्तिमार्गीय और तांत्रिकपूजा विधियों में बहुत कुछ किन प्रीजिनपटामोजानिमोटलाय देवी
नाही " समरूपता होते हुए भी उनके प्रयोजन भिन्न रूप में माने गये हैं। जहाँ
ह्र: स्वाहा। सर्वजनराज्यस्त्रीपुरुषवश्यं सर्व २ ॐ आँ काँ ऐं क्लीं ह्रीं सामान्यतया हिन्दू एवं तांत्रिकपूजा-विधियों का प्रयोजन इष्टदेवता को
देवि! पद्मावति। त्रिपुरकामसाधिनी दुर्जनमतिविनाशिनी त्रैलोक्यक्षेभिनी प्रसन्न कर उसकी कृपा से अपने लौकिक संकटों का निराकरण करना श्रीपार्श्वनाथोपसर्गहारिणी क्लीं ब्लं मम दृष्टान हन हन, मम सर्वकार्याणि रहा है। वहाँ जैन पूजा-विधानों का प्रयोजन जन्म-मरण रूप संसार से
साधय साधय हुं फट् स्वाहा।। विमुक्ति ही रहा। दूसरे, इनमें पूज्य से कृपा की कोई आकांक्षा भी नहीं
आँ क्रों ह्रीं क्लीं सौ पद्म! देवि! मम सर्वजगदृश्यं कुरु कुरु, होती है मात्र अपनी आत्मविशुद्धि की आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है, सती
___ सर्वविघ्नान् नाशय नाशय, पुरक्षोभं कुरु कुरु, ही संवौषट् स्वाहा। क्योंकि दैवीयकृपा (grace ofGod) का सिद्धान्त जैनों के कर्म-सिद्धान्त
ॐ आँ क्रॉ हाँ द्राँ द्रीं क्लीं ब्लू सः हw पद्मावती सर्वपुरजनान् के विरोध में जाता है।
क्षोभय क्षोभय, मम पादयोः पातय पातय, आकर्षणीं ह्रीं नमः।
ॐ ह्रीं क्रॉ अहं मम पापं फट् दह दह हन हन पच पच पाचय जैन पूजा-विधान और लौकिक एवं मैतिक मंगल की कामना ।
पाचय हं मं मां हं क्ष्वी हंस में वह्य यहः क्षां क्षीं हूं क्षं स क्षों क्षं क्षः यहाँ भी ज्ञातव्य है कि तीर्थंकरों की पूजा-उपासना में तो यह सिं हाँ ह्रीं हे हों हौं हहि: हि द्रो दि द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते आत्मविशुद्धिप्रधान जावनाष्ट कायम रहा, किन्तु जिनशासन करवाक श्रीमते ठः ठः मम श्रीरस्तु, पुष्टिरस्तु, कल्याणमस्तु स्वाहा।। देवों की पूजा-उपसना में लौकिकमंगल और भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना किसी न किसी रूप में जैनों में भी आ गई। इस कथन
ज्वालामालिनीस्तोत्र की पुष्टि भैरवपद्यावती कल्प में पद्मावती के निम्न मन्त्र से होती है-१२
- इससे यह फलित होता है कि तान्त्रिक साधना के षट्कर्मों की
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