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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य -- जैन दर्शन - संभव न हो। ऐसा मूलकण सचमुच में विज्ञान और दर्शन दोनों कुंदकुंद लिखते हैं२८ - सर्व स्कंधों का अन्तिम भाग परमाणु है। का मौलिक कण बन जाएगा।
यह अविभागी, एक, शाश्वत, मूर्तिप्रभव है। परमाणु, संहति और ऊर्जा
वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिष्ठापित परमाण जैनों की भाँति शाश्वत
नहीं है। परमाण्विक संरचना के कारण इसमें परिवर्तन एवं परिवर्द्धन क्या परमाणु में कोई द्रव्यमान होता है? अगर यह प्रश्न
होता ही रहता है। यही कारण है कि वैज्ञानिकों ने परमाणुकिसी वैज्ञानिक से किया जाए तो सामान्यतः वह यही कहेगा
विखण्डन के द्वारा कई तरह के सूक्ष्म कण प्राप्त कर लिए हैं और कि परमाणु द्रव्यमान-रहित होता है। लेकिन यह द्रव्यमान रहित
भविष्य में भी शायद करते रहें। इस सन्दर्भ में जैनों का यह परमाणु अपने अंदर कुछ ऊर्जा संजोए रखता है, जिसकी मात्रा
चिन्तन अवलोकनीय है२९ - अनादि काल से अबतक परमाणु प्रायः निश्चित रहती है। विज्ञान का यह कथन सामान्य जनों को
की अवस्था में ही रहने वाला कोई अणु नहीं है। तात्पर्य यह है आश्चर्य में डाल देता है। क्योंकि वह यह सोचने पर विवश हो
कि जैनों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि विज्ञान का जाता है कि द्रव्यमान - रहित परमाणु से बने तत्त्वों में द्रव्यमान
परमाणु, परमाणु न होकर अणु है। क्योंकि अणु परमाणुओं से कहाँ से आ जाता है। क्योंकि यह सामान्य जिज्ञासा है कि जो है
मिलकर बनते हैं। इसी सन्दर्भ में हम जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत इस नहीं वह कहाँ से आ सकता है। वैज्ञानिकों के समक्ष भी यह प्रश्न
कथन पर भी विचार करें ऐसे परमाणु अनन्त पड़े हुए हैं जो उठा। उन्होंने भी समाधान का मार्ग खोजा और इसके लिए उन्होंने
आज तक स्कंधरूप नहीं हुए और आगे भी नहीं होंगे। कहने का परमाणु में निहित निश्चित मात्रा की ऊर्जा को उत्तरदायी माना।
अर्थ यह है कि मूलकण अनन्त हो सकते हैं, लेकिन मूलकण तो इस सन्दर्भ में हम आइन्स्टीन द्वारा प्रतिस्थापित सिद्धान्त मूलकण ही रहेंगे। उनमें विभाजन का प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि का अवलोकन कर सकते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि ऊर्जा जो विभाजित हो गया वह मूलकण कहाँ रहा। तथा द्रव्यमान पदार्थ के ही गुण हैं। ऊर्जा को द्रव्यमान में तथा
परमाणु मूर्तिक होते हैं अर्थात् इन्हें आकार प्रदान किया संहति को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। आइन्स्टीन जा सकता है। मर्तिक होने के लिए वस्त में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण का यह मत नि:संदेह विविध प्रकार की जिज्ञासाओं को शान्त होना चाहिए। प्रत्येक परमाण में कम से कम एक रस एक वर्ण. कर देता है। यह ठीक है कि ऊर्जा और संहति का यह परिवर्तन एक गंध तथा दो स्पर्श अवश्य पाया जाता है।३१ इन्हीं गुणों की एक सामान्य अवस्था में संभव नहीं है, लेकिन यह प्रक्रिया तीव्रता एवं मंदता के आधार पर भी परमाणु के अनन्त भेद हो गतिमान रहती है। अतः द्रव्यमान-रहित परमाणु, जिसमें एक सकते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित मूलकण अथवा सूक्ष्मकणों निश्चित मात्रा में ऊर्जा रहती है, उससे निर्मित तत्त्वों में संहति का में ऊर्जा की मात्राएँ निहित रहती हैं। ऊर्जा की ये मात्राएँ सभी पाया जाना कोई आश्चर्यजनक सत्य नहीं है।
कणों में अलग-अलग लेकिन निश्चित रहती हैं। इसी. ऊर्जा
संचयन के कारण विज्ञान के मूलकण भी विविध प्रकार के माने मूलभूत कण एवं जैनमत
गए हैं। यह तथ्य प्रयोगसिद्ध है। मूलभूत कण उसे कहा जाता है जो एक अन्तिम कण हो
परमाणु-संरचना और जैन-मत जिसका विभाग संभव नहीं हो। यद्यपि विज्ञान के समक्ष अभी तक क्वार्क के रूप में ऐसा कण उपलब्ध हुआ है, लेकिन इसके पदार्थों का निर्माण अणुओं से और अणुओं की उत्पत्ति सम्बन्ध में वह कोई निश्चित अवधारणा नहीं बना पाया है। परमाणुओं से मानी गई है। प्रत्येक परमाण में एक केन्द्र होता है. क्वार्क के सम्बन्ध में जो अवधारणा है वह संभवत: विचारों जो धनावेशित होता है। अतः केन्द्र के चारों तरफ ऋणावेशित तक ही सीमित मानी जाती है। जैनों ने मूलभूत कण के रूप में इलेक्ट्रॉन अपनी नियत कक्षा में निरंतर भ्रमण करते रहते हैं। परमाणु की परिकल्पना की है। परमाणु के सम्बन्ध में अपना ऋणावेशित एवं धनावेशित तत्त्व एक दूसरे को आकर्षित करते मत व्यक्त करते हुए आचार्य उमास्वाति कहते हैं कि परमाण के हैं क्योंकि इन दोनों परस्पर विरोधी आवेशों का यही गुण माना प्रदेश नहीं होते ।२७ पंचास्तिकाय में इसे स्पष्ट करते हए आचार्य गया है। इस आकर्षण के फलस्वरूप एक बल उत्पन्न होता है,
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