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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार
पद्धति को वैज्ञानिक और प्रायोगिक बनाने के लिए अभी उन्हें बहुत कुछ करना शेष रहता है।
वर्तमान युग और ध्यान
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वर्तमान युग में जहाँ एक ओर योग और ध्यान संबंधी साधनाओं के प्रति आकर्षण बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर योग और ध्यान के अध्ययन बढ़ा और शोध में भी विद्वानों की रुचि जागृत हुई है। आज भारत की अपेक्षा पाश्चात्य देशों में योग और ध्यान के प्रति विशेष आकर्षण देखा जाता है, क्योंकि भौतिक आकांक्षाओं के कारण जीवन में जो तनाव आ गये हैं, वे उससे मुक्ति चाहते हैं। आज भारतीय योग और ध्यान की साधनापद्धतियों को अपने-अपने ढंग से पश्चिम के लोगों की रुचि के अनुकूल बनाकर विदेशों में निर्यात किया जा रहा है। योग और ध्यान की साधना में शारीरिक विकृतियों और मानसिक तनावों को समाप्त करने की जो शक्ति रही हुई है, उसके कारण भोगवादी और मानसिक तनावों से संत्रस्त पश्चिमी देशों के लोग चैतसिक शान्ति का अनुभव करते हैं और यही कारण है कि उनका योग और ध्यान के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। इन साधना पद्धतियों का अभ्यास कराने के लिए भारत से परिपक्व एवं अपरिपक्व दोनों ही प्रकार के गुरु विदेशों की यात्रा कर रहे हैं। यद्यपि अपरिपक्व भोगाकांक्षी तथाकथित गुरुओं के द्वारा ध्यान और योगसाधना का पश्चिम में पहुँचना भारतीय ध्यान और योग परम्परा की मूल्यवत्ता एवं प्रतिष्ठा दोनों ही दृष्टि से खतरे से खाली नहीं है। आज जहाँ पश्चिम में भावातीत ध्यान साधना भक्ति वेदान्त, रामकृष्ण मिशन आदि के कारण भारतीय ध्यान एवं योग साधना की लोकप्रियता बढ़ी है वहीं रजनीश आदि के कारण उसे एक झटका भी लगा है। आज श्री चित्तमुनिजी, स्वर्गीय आचार्य सुशीलकुमारजी, डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्ल आदि ने जैन-ध्यान और साधना विधि से पाश्चात्य देशों में बसे हुए जैनों को परिचित कराया है। तेरापंथ की कुछ जैन-समणियों ने भी विदेशों मे जाकर प्रेक्षाध्यान-विधि से उन्हें परिचित कराया है। यद्यपि इनमें कौन ३. कहाँ तक सफल हुआ है यह एक अलग प्रश्न हैं, क्योंकि सभी के अपने-अपने दावे हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि आज पूर्व और ४ पश्चिम दोनों में ही ध्यान और योग साधना के प्रति रुचि जागृत हुई है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि योग और ध्यान की जैन-विधि सुयोग्य साधकों और अनुभवी लोगों के माध्यम से ही पूर्व-पश्चिम में विकसित हो, अन्यथा जिस प्रकार मध्ययुग में हठयोग और तंत्र साधना से प्रभावित होकर भारतीय योग और ध्यान परम्परा विकृत हुई थी उसी प्रकार आज भी उसके विकृत होने का खतरा बना रहेगा और लोगों की उससे आस्था उठ जायेगी।
५.
ध्यान एवं योग संबंधी साहित्य
इस युग में गवेषणात्मक दृष्टि से योग और ध्यान संबंधी साहित्य को लेकर पर्याप्त शोधकार्य हुआ है। जहाँ भारतीय योग-साधना और पतञ्जलि के योगसूत्र पर पर्याप्त कार्य हुए हैं, वहीं जैन- योग की
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ओर भी विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है। ध्यानशतक, ध्यानस्तव, ज्ञानार्णव आदि ध्यान और योग संबंधी ग्रंथों की समालोचनात्मक भूमिका तथा हिन्दी - अनुवाद के साथ प्रकाशन इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयत्न कहा जा सकता है। पुनः हरिभद्र के योग संबंधी ग्रंथों का स्वतंत्र रूप से योग चतुष्टय के रूप में प्रकाशन इस कड़ी का एक अलग चरण है। पं० सुखलालजी का 'समदर्शी हरिभद्र' अर्हददास बंडोबा दिघे का पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान से प्रकाशित जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन', मंगला सांड का 'भारतीय योग' आदि गवेषाणात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रकाशन कहे जा सकते हैं। अंग्रेजी भाषा में विलियम जेम्स का 'जैन - योग', डॉ० नथमल टाटिया की 'Studies in Jaina Philosophy', पद्मनाभ जैनी का 'Jain Path of Purification' आदि भी इस क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं जैन-ध्यान और योग को लेकर लिखी गई मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) की 'जैन-योग' 'चेतना का ऊर्ध्यारोहरण', 'किसने कहा मन चंचल है', 'आभामण्डल' आदि तथा आचार्य तुलसी की प्रेक्षा अनुप्रेक्षा आदि कृतियाँ इस दृष्टि से अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है। उनमें पाश्चात्य मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान का तथा भारतीय हठयोग की षट्चक्र की अवधारणा को भी अपने ढंग से समन्वित किया है। उनकी ये कृतियाँ जैन योग और ध्यान-साधना के लिए अवश्य मील का पत्थर साबित होगी।
संदर्भ
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८.
Mohenjodaro and Indus Civilization, John marshall Pub.- Indological Book House, Delhi, 1973 Vol. I. Page 52
९.
Dictonary of Pali Proper Names, By G. P. MalalaSekhara Pub.- John Murray, Albemarle Street, London, (1937) Vol. I. P. 382-83.
सूत्रकृतांग सूत्र, संपा• मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८२, १/३/४/२-३
स्थानांगसूत्र, संपा - मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८१, १०/१३३ (इसमें अन्तकृदृशा की प्राचीन विषय वस्तु का उल्लेख है) इसिभासियाई (ऋषिभाषित) संपा०- महोपाध्याय विनयसागर, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८८, अध्याय २३ वही, अध्याय २३
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उत्तराध्ययनसूत्र संपा० - साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२; २६ / १८
श्रमणसूत्र (उपाध्याय अमरमुनि), प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सं० २००७ प्रथम संस्करण पृ० १३३ १३४
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