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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन बौद्ध - धर्मकीर्ति ने हेत के तीन प्रकारों को प्रस्तत किया निषेध-विधि - साध्य का असदभाव और साधन क है ६१ - (१) स्वभाव (२) कार्य तथा (३) अनुपलब्धि। सद्भाव हो तो हेतु निषेध-विधि के रूप में समझा जाता है।
स्वभाव - यह अग्नि है। क्योंकि यह उष्ण है। इसमें जैसे - यहाँ उष्णता है, क्योंकि शीतलता नहीं है। अग्नि साध्य है जिसे सिद्ध होने के लिए उष्णता की अपेक्षा है षट्खण्डागम - इसके मूल सूत्र में हेतु के भेद-प्रभेद अथवा अग्नि का स्वभाव है। अतः ऐसे हेतु को स्वभाव हेतु आदि की कोई चर्चा नहीं मिलती है। किन्तु इसके व्याख्याकार कहते हैं।
वीरसेन ने हेतुवाद (जिसका उल्लेख षटखण्डागम में प्राप्त होता कार्यहेतु - यहाँ अग्नि है, क्योंकि यहां धूम है। इसमें है) का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि हेतु के दो भेद होते साध्य अग्नि है और धूम हेतु है। किन्तु धूम अग्नि से पैदा होता हैं -(१) साधन-हेतु तथा (२) दूषण-हेतु। है। अत: साध्य से उत्पन्न होने वाले हेतु को कार्यहेतु कहते हैं। सिद्धसेन दिवाकर - हेतु के दो प्रकार एवं प्रयोग के
__ अनुपलब्धिहेतु - जो हेतु उपलब्धि को न बताकर संबंध में सिद्धसेन दिवाकर की निम्नलिखित उक्ति हैं६५ - अनुपलब्धि को बताए उसे अनुपलब्धिहेतु कहते हैं। किन्तु यह हेतोस्तथोपपत्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा उसकी अनुपलब्धि बताता है जिसमें उपलब्धि की योग्यता है,
द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति।।१७।। अर्थात् जो वस्तु उपलब्धि-लक्षण प्राप्त है। घट में उपलब्धि लक्षण है फिर भी इसकी अनुपलब्धि ज्ञात होती है तो जिस
अर्थात् हेतु के दो प्रकार हैं--(१) तथोपपत्ति--साध्य के कारण से अनुपलब्धि ज्ञात हो रही है उसे अनपलब्धिहेत कहते हान पर हा हाना। हैं। प्रमाणवार्तिक में अनुलपब्धि के चार विभाग बताए गए हैं-- (२) अन्यथानुपपत्ति - साध्य के अभाव में कभी भी न (१) विरुद्धोपलब्धिा (२) विरुद्धकार्योपलब्धि (३) होना इन भेदों का स्पष्टीकरण न्यायावतार के भाष्यकार सिद्धर्षिगणि कारणानुपलब्धि तथा (४) स्वभावानुपलब्धि। परंतु न्यायबिंदु के द्वारा होता है। वे इनके लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ६६ - में इनके अलावा और सात भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं
तथोपपत्ति - यहाँ अग्नि है, धूम की अग्नि के द्वारा ही -(१) स्वभावविरुद्धोपलब्धि (२) कार्यानुपलब्धि (३)
उत्पत्ति होने से। विरुद्धव्याप्तोलब्धि (४) व्यापकनिरुद्धोपलब्धि (५) कारणविरुद्धोपलब्धि (६) कार्यविरुद्धोपलब्धि (७) कारण
अन्यथानुपपति- यहाँ अग्नि है. क्योंकि अग्नि के अभाव विरुद्धकार्योपलब्धि।
में धूम की उत्पत्ति संभव नहीं है। जैनमत - स्थानाङ्गसूत्र में हेतु के चार प्रकार बताए गए
अकलंक - अकलंक ने मुख्य रूप से हेतु के दो ही भेद हैं ६३--(१) विधि-विधि (२) निषेध-निषेध (३) विधि- बताए हैं-विधि और निषेध अर्थात् उपलब्धि और अनुपलब्धि। निषेध और (४) निषेध-विधि--
पुनः उन्होंने उपलब्धि तथा अनुलपब्धि के छह-छह भेद किए हैंविधि-विधि - हेतु और साध्य दो के ही सद्भाव रूप हों उपलब्धि-(१) स्वभावोपलब्धि (२) स्वभावतो उसे विधि-विधि हेतु कहते हैं, जैसे-यहाँ अग्नि है, क्योंकि कार्योपलब्धि (३) स्वभावकारणोपलब्धि (४) सहचरोपलब्धि यहाँ धूम है।
(५) सहचरकार्योपलब्धि तथा (६) सहचरकारणोपलब्धि। निषेध-निषेध - जब साध्य और साधन दोनों के ही अनुलपब्धि-असद्व्यवहारसाधक - (१) स्वभावानुपअसदभाव रूप हों तब उस हेतु का निषेध-निषेध रूप होता है। लब्धि, (२) कार्यानुपलब्धि, (३) कारणानुपलब्धि (४) जैसे-यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि यहाँ अग्नि नहीं है।
स्वभावसहचरानुपलब्धि (५) सहचरकारणानुपलब्धि और विधि-निषेध - साध्य का सदभाव तथा साधन का सहचरकायानुपलब्धि। असद्भाव रहने पर हेतु विधि-निषेध कहा जाता है। राम रोग सद्व्यवहारनिषेधक -(१) स्वभावविरुद्धोपलब्धि (२) ग्रस्त है, क्योंकि उसमें स्वस्थ चेष्टा का अभाव है।
कार्यविरुद्धोपलब्धि (३) कारणविरुद्धोपलब्धि।
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