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________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ३. उत्तराध्ययननियुक्ति पिण्डनियुक्ति, ओधनियुक्ति एवं आराधनानियुक्ति को भी समाविष्ट किया ४. आचारांगनियुक्ति जाता है, किन्तु इनमें से पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति कोई स्वतन्त्र ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति ग्रन्थ नहीं है। पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का एक भाग है और ६. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति ओघनियुक्ति भी आवश्यकनियुक्ति का एक अंश है। अत: इन दोनों ७. बृहत्कल्पनियुक्ति को स्वतन्त्र नियुक्ति ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि वर्तमान में ८. व्यवहारनियुक्ति ये दोनों नियुक्तियाँ अपने मूल ग्रन्थ से अलग होकर स्वतन्त्र रूप में ९. सूर्य प्रज्ञप्तिनियुक्ति ही उपलब्ध होती हैं। आचार्य मलयगिरि ने पिण्डनियुक्ति को १०. ऋषिभाषितनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक विभाग माना है, उनके अनुसार वर्तमान में उपर्युक्त दस में से आठ ही नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं, दशवैकालिक के पिण्डैषणा नामक पाँचवें अध्ययन पर विशद नियुक्ति अन्तिम दो अनुपलब्ध हैं। आज यह निश्चय कर पाना अति कठिन होने से उसको वहाँ से पृथक् करके पिण्डनियुक्ति के नाम से एक है कि ये अन्तिम दो नियुक्तियाँ लिखी भी गयीं या नहीं? क्योंकि स्वतन्त्र ग्रन्थ बना दिया गया। मलयगिरि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हमें कहीं भी ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, जिसके आधार जहाँ दशवैकालिक नियुक्ति में लेखक ने नमस्कारपूर्वक प्रारम्भ किया, पर हम यह कह सकें कि किसी काल में ये नियुक्तियाँ रहीं और बाद वहीं पिण्डनियुक्ति में ऐसा नहीं है, अत: पिण्डनियुक्ति स्वतन्त्र ग्रन्थ में विलुप्त हो गयीं। यद्यपि मैंने अपनी ऋषिभाषित की भूमिका में नहीं है। दशवैकालिकनियुक्ति तथा आवश्यकनियुक्ति से इन्हें बहुत पहले यह सम्भावना व्यक्त की है कि वर्तमान 'इसीमण्डलत्थु' सम्भवतः ही अलग कर दिया गया था। जहाँ तक आराधनानियुक्ति का प्रश्न है, ऋषिभाषितनियुक्ति का परवर्तित रूप हो, किन्तु इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर-साहित्य में तो कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है। प्रो० ए० निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कहना कठिन है। इन दोनों नियुक्तियों एन० उपाध्ये ने बृहत्कथाकोश की अपनी प्रस्तावना (पृ०३१) में के सन्दर्भ में हमारे सामने तीन विकल्प हो सकते हैं मूलाचार की एक गाथा पर वसुनन्दी की टीका के आधार पर इसी १. सर्वप्रथम यदि हम यह मानें कि इन दसों नियुक्तियों के लेखक नियुक्ति का उल्लेख किया है, किन्तु आराधनानियुक्ति की उनकी यह एक ही व्यक्ति हैं और उन्होंने इन नियुक्तियों की रचना उसी क्रम में कल्पना यथार्थ नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी स्वयं एवं प्रो० की है, जिस क्रम से इनका उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में है, तो ए० एन० उपाध्ये जी मूलाचार की उस गाथा के अर्थ को सम्यक् ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि वे अपने जीवन-काल में आठ नियुक्तियों प्रकार से समझ नहीं पाये हैं। की ही रचना कर पायें हों तथा अन्तिम दो की रचना नहीं कर वह गाथा निम्नानुसार हैपायें हों। "आराहण णिज्जुत्ति मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। २. दूसरे यह भी सम्भव है कि ग्रन्थों के महत्त्व को ध्यान में पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ य एरिसओ।" रखते हुए प्रथम तो लेखक ने यह प्रतिज्ञा कर ली हो कि वह दसों (मूलाचार, पंचाचाराधिकार, २७९) आगम-ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखेगा, किन्तु जब उसने इन दोनों आगम- अर्थात् आराधना, नियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रहणीसूत्र, स्तुति ग्रन्थों का अध्ययन कर यह देखा कि सूर्य प्रज्ञप्ति में जैन-आचार मर्यादाओं (वीरस्तुति), प्रत्याख्यान (महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान), आवश्यकसूत्र, के प्रतिकूल कुछ उल्लेख हैं और ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल धर्मकथा तथा ऐसे अन्य ग्रन्थों का अध्ययन अस्वाध्याय-काल में किया आदि उन व्यक्तियों के उपदेश संकलित हैं जो जैन-परम्परा के लिए जा सकता है। वस्तुत: मूलाचार की इस गाथा के अनुसार आराधना विवादास्पद हैं, तो उसने इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित एवं नियुक्ति ये अलग-अलग स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। इसमें आराधना से तात्पर्य कर दिया हो। आराधना नामक प्रकीर्णक अथवा भगवती आराधना से तथा नियुक्ति ३. तीसरी सम्भावना यह भी है कि उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों पर से तात्पर्य आवश्यक आदि सभी नियुक्तियों से है। नियुक्तियाँ लिखी हों किन्तु इनमें भी विवादित विषयों का उल्लेख होने अतः आराधनानियुक्ति नामक नियुक्ति की कल्पना अयथार्थ है। से इन नियुक्तियों को पठन-पाठन से बाहर रखा गया हो और फलतः इस नियुक्ति के अस्तित्व की कोई सूचना अन्यत्र भी नहीं मिलती है अपनी उपेक्षा के कारण कालक्रम में वे विलुप्त हो गयी हों। यद्यपि और न यह ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है। इन दस नियुक्तियों के अतिरिक्त यहाँ एक शंका हो सकती है कि यदि जैन-आचार्यों ने विवादित होते आर्य गोविन्द की गोविन्दनियुक्ति का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु हुए भी इन दोनों ग्रन्थों को संरक्षित करके रखा, तो उन्होंने इनकी यह भी नियुक्ति वर्तमान में अनुपलब्ध है। इनका उल्लेख नन्दीसूत्र', नियुक्तियों को संरक्षित करके क्यों नहीं रखा? व्यवहारभाष्य', आवश्यकचूर्णि१०, एवं निशीथचूर्णि' में मिलता है। ४. एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार इस नियुक्ति की विषय-वस्तु मुख्य रूप से एकेन्द्रिय अर्थात् पृथ्वी, दर्शनप्रभावक ग्रन्थ के रूप में मान्य गोविन्दनियुक्ति विलुप्त हो गई पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि में जीवन की सिद्धि करना था। है, उसी प्रकार ये नियुक्तियाँ भी विलुप्त हो गई हों। इसे गोविन्द नामक आचार्य ने बनाया था और उनके नाम के आधार नियुक्ति-साहित्य में उपर्युक्त दस नियुक्तियों के अतिरिक्त पर ही इसका नामकरण हुआ है। कथानकों के अनुसार ये बौद्ध-परम्परा miritirovincinianiamitamirmirmirmiromanivirail[१६९himiratarciniamadhorimooirrorrowiroinovaravoria Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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