________________
- तीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन होती है। इसी आधार पर सत् को परिभाषित करते हुए उमास्वाति द्रव्य के कुल छः भेद हो जाते हैं--जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, ने कहा है सत्, उत्पाद, व्यय या विनाश और स्थिरता युक्त होता आकाश और काल ३। इनमें प्रथम पाँच अस्तिकाय द्रव्य कहलाते है। आगे चलकर इसे ही दूसरे रूप में परिभाषित किया गया है- हैं तथा काल अनस्तिकाय द्रव्य कहलाता है। 'गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। जिसमें उत्पाद और व्यय के .
जीव द्रव्य स्थान पर पर्याय आ गया और ध्रौव्य के स्थान पर गुण। उत्पाद और व्यय परिवर्तन का सूचक है तथा ध्रौव्य नित्यता की सूचना तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि देता है। परन्तु उत्पाद एवं व्यय के बीच एक प्रकार की स्थिरता उपयोग जीव का लक्षण है। उपयोग का अर्थ होता है - रहती है जो न तो कभी नष्ट होती है और न उत्पन्न ही। इस बोधगम्यता। अर्थात् जीव में बोधगम्यता होती है और बोधगम्यता स्थिरता को ध्रौव्य एवं तद्भावाव्यय भी कहते हैं। यही नित्य वहीं देखी जाती है जहाँ चेतना होती है। अतः कहा जा सकता है का लक्षण है। आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की व्याख्या कछ इस कि चेतना जीव का लक्षण है। यदि उपयोग शब्द का व्यावहारिक प्रकार की है-- जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला है, उत्पाद, व्यय लक्षण लें तो भी यही ज्ञात होता है कि चेतना जीव का लक्षण है।
और ध्रौव्ययुक्त है, गुण और पर्यायुक्त है वही द्रव्य है। यहां जिसमें चेतना नहीं होगी वह भला किसी चीज की उपयोगिता यह स्पष्ट कर देना उचित जान पडता है कि कहीं-कहीं द्रव्य और को क्या समझेगा? उपयोग में ज्ञान और दर्शन सन्निहित होते सत् को एक-दूसरे से भिन्न माना गया है। अनुयोगद्वार सूत्र में हैं।१५ उपयोग के दो प्रकार होते हैं--ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग। तत्त्व को सामान्य लक्षण द्रव्य माना गया है और विशेष लक्षण ज्ञान सविकल्प होता है और दर्शन निर्विकल्प होता है। अतः के रूप में जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य माने गए हैं।१० इसका पहले दर्शन होता है फिर इसका समाधान ज्ञान में होता है। अभिप्राय यह है कि द्रव्य और तत्त्व कमोवेश अलग-अलग अर्थात् विषयवस्तु क्या है? यह प्रश्न उपस्थित होता है तत्पश्चात् तथ्य नहीं है। इस संदर्भ में डा. मोहनलाल मेहता के विचार इस उसका समाधान होता है। प्रकार हैं- जैन आगमों में सत शब्द का प्रयोग द्रव्य के लक्षण के
ज्ञानोपयोग के दो प्रकार माने गए हैं, स्वभाव ज्ञान तथा रूप में नहीं हुआ है। वहाँ द्रव्य को ही तत्त्व कहा गया है और सत् विभाव ज्ञान१६ | विभाव ज्ञान के पनः दो विभाग होते हैं-- के स्वरूप का सारा वर्णन द्रव्य-वर्णन के रूप में रखा गया है।
सम्यक् ज्ञान तथा मिथ्या ज्ञान। इसी प्रकाश दर्शनोपयोग के भी द्रव्य के भेद
दो भेद होते हैं--स्वभावदर्शन तथा विभावदर्शन। विभावदर्शन
के पुनः तीन भेदोहते हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन। द्रव्य के वर्गीकरण को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है।
इसके आगे सम्यक् ज्ञान, मिथ्याज्ञान आदि के भी भेद किए गए परंतु प्रायः सभी विद्वान् मुख्य रूप से द्रव्य के दो भेद मानते हैं
हैं. लेकिन यहाँ उनका वर्णन करना उपयुक्त नहीं जान पड़ता। जीव और अजीव१२। चैतन्य धर्मवाला जीव कहलाता है तथा उसके विपरीत धर्मवाला अजीव। इस तरह सम्पूर्ण लोक दो जीव का स्वरूप भागों में विभक्त हो जाता है। चतन्य लक्षण वाले द्रव्य जाव
जैन मान्यता के अनसार सभी वस्तुओं में गण आर पयाय विभाग के अंतर्गत आ जाते हैं और जिनमें चैतन्य नहीं है उनका होते हैं। जीव में भी गण और पर्याय होते हैं। चेतना जीव का गण समावेश अजीव-विभाग के अंतर्गत हो जाता है। परंतु जीव- है और जीव जो विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ता है. उसके पर्याय अजीब के भेद-प्रभेद करने पर द्रव्य के छः भेद हो जाते हैं। जीव हैं। पर्याय की विभिन्न अवस्थाएँ भाव कही जाती हैं। इन्हें जीव द्रव्य अरूपी है अर्थात् जिसे इंद्रियों से न देखा जा सके वह अरूपी का स्वरूप कहते हैं। जीव के पाँच भाव इस प्रकार है-- है, अत: जीव या आत्मा अरूपी है। अजीव के दो भेद होते हैं-- रूपी और अरूपी। रूपी अजीवद्रव्य के अंतर्गत पुद्गल आ जाता
औपशमिक - उपशम का अर्थ होता है दब जाना। जब सत्तागत है। अरूपी अजीवद्रव्य के पुनः चार भेद होते हैं-धर्मास्तिकाय,
कर्म दब जाते हैं, उनका उदय रुक जाता है और उसके फलस्वरूप
जो आत्मशुद्धि होती है, वह औपशमिक भाव कहलाता है। अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय, अद्धासमय (काल)। इस प्रकार
यथापानी में मिली हुई गंदगी का बर्तन की तली में बैठ जाना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org