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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य हुए आचार्य ने नारी-स्वभाव की कड़ी आलोचना की है और दशवैकालिकचूर्णि में कह दिया गया है। इस स्वरसाम्य को इस प्रसंग पर निम्नलिखित दो श्लोक भी उद्धृत किए हैं-- देखते हुए यह कथन अनुपयुक्त नहीं कि उत्तराध्ययन और एषा हसंति रुदंति च अर्थहेतोर्विश्वासयंति च परं न च विश्वसंति। दशवैकालिक की चूर्णियाँ एक ही आचार्य की कृतियाँ हैं तथा तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानसुमना इव वर्जनीयाः॥१॥ दशवैकालिकचूर्णि की रचना उत्तराध्ययनचूर्णि से पूर्व की है। समुद्रवीचीचपलस्वभावाः संध्याभ्ररेखेव मुहूर्तरागाः। स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थक, नीपीडितालक्त( क )वत् त्यति॥२॥ आचारागचूणि
-- उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. ६५. इस चूर्णि° में प्रायः उन्हीं विषयों का विवेचन है जो हरिकेशीय अध्ययन की चर्णि में आचार्य ने अब्राह्मण के
आचारांग नियुक्ति में है। नियुक्ति की गाथाओं के आधार पर ही
आचारागान लिए निषिद्ध बातों की ओर निर्देश करते हुए शूद्र के लिए निम्न
यह चूर्णि लिखी गई है अतः ऐसा होना स्वाभाविक है। इसमें श्लोक उद्धृत किया है--
वर्णित विषयों में से कुछ के नामों का निर्देश करना अप्रासंगिक
न होगा। प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूर्णि में मुख्य रूप से निम्न न शूद्राय बलिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविः कृतम्। न चास्योपदिशेद्धर्म, न चास्य व्रतमादिशेत्।।
विषयों का व्याख्यान किया गया है-अनुप्रयोग, अंग, आचार,
ब्रह्म, वर्ण, आचरण, शस्त्र, परिज्ञा, संज्ञा, दिक्, सम्यक्त्व, योनि,
--वही, पृ. २०५. कर्म, पृथ्वी आदि काय, लोक, विजय, गुणस्थान, परिताप, चूर्णिकार ने चूर्णि के अंत में अपना परिचय देते हुए स्वयं विहार, रति, अरति, लोभ, जुगुप्सा, गोत्र, ज्ञाति, जातिमरण, को वाणिज्यकुलीन, कोटिकगणीय, वज्रशाखी, गोपालगणिज्रहत्तर एषणा, बंध-मोक्ष, शीतोष्णादि परीषह, तत्त्वार्थश्रद्धा, जीवरक्षा, का शिष्य बताया है। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं--
अचेलत्व, मरण, संलेखना, समनोज्ञत्व, यामत्रय, त्रिवस्त्रता, वाणिजकुलसंभूओ कोडियगणिओ उवयरसाहीतो।
वीरदीक्षा, देवदृत, सवस्त्रता। चूर्णिकार ने भी निक्षेपपद्धति का ही गोवालियमहत्तरओ, विक्खाओ आसि लोगंमि॥1॥ आधार लिया है। ससमयपरसमयविऊ, ओयस्सी दित्तिमं सुगंभीरो।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने मुख्य सीसगणसंपरिवुडो, वक्खाणरतिप्पिओ आसी।।2।।
रूप से निम्न विषयों का विवेचन किया है--अग्र, प्राणसंसक्त, तेसिं सीसेण इमं, उत्तरज्झयणाण चुण्णिखंडं तु।
पिण्डैषणा, शय्या, ईर्या, भाषा, वस्त्र, पात्र, अवग्रहसप्तक, सप्तसप्तक, रइयं अणुग्गहत्थं, सीसाणं मंदबुद्धीणं।।3।।
भावना, विमुक्ति। चूँकि आचारांग सूत्र का मल प्रयोजन श्रमणों के जं एत्थं वस्सुत्तं, अयाणमाणेण विरतितं हाज्जा।
आचार-विचार की प्रतिष्ठा करना है, अतः प्रत्येक विषय का तं अणुओगधरां मे, अणुचिंतेउं समारंतु।।4।।
प्रतिपादन इसी प्रयोजन को दृष्टि में रखते हुए किया गया है। वही, पृ. २८३.
प्राकृतप्रधान प्रस्तुत चूर्णि में यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक दशवैकालिकचर्णि भी नि:संदेह उन्हीं आचार्य की कृति है भी उदधत किए गए हैं। इनके मूल स्थल की खोज न करते हुए जिनकी उत्तराध्यनचूर्णि है। इतना ही नहीं, दशर्वकालिकचूणि उदाहरण के रूप में भी कछ श्लोक यहाँ उधत किए जाते हैं। उत्तराध्यनचूर्णि से पहले लिखी गई है। इसका प्रमाण आगम के पामाण्य की पति के लिए निम्न लोक उधत किया उत्तराध्ययनचूर्णि में मिलता है जो इस प्रकार है-षष्ठोपि चित्तो गया हैनानाप्रकारो प्रकीर्णतपोभिधीयते, तदन्यत्राभिहितं, शेषं
जिनेन्द्रवचनं सूक्ष्महेतुभिर्यदि गृह्यते। दशवैकालिकचूर्णौ अभिहितं...। यहां आचार्य ने स्पष्ट रूप से
आज्ञया तद्ग्रहीतव्यं, नान्यथावादिनो जिनाः।। लिखा है कि प्रकीर्णतप के विषय में अन्यत्र कह दिया गया है और शेष दशवैकालिकचूर्णि में कह दिया गया है। जिस स्वर में
आचारांगचूर्णि, पृ. २० 'आचार्य ने यह लिखा है कि इसके विषय में अन्यत्र कह दिया स्वजन से भी धन अधिक प्यारा होता है. इसका समर्थन गया है उसी स्वर में उन्होंने यह भी लिखा है कि शेष करते हुए कहा गया है---
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