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२१४. १६१२
वैशाख सुदि६ बुधवार फाल्गुन सुदि५ गुरुवार वैशाख वदि७
२१५. १६४३
चतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास - के हर्षरत्न उपाध्याय, पं. गुमणंदिर, माणिकरत्न, विद्यारत्न, सुमतिराज आदि संयमरत्नसूरि संभवनाथ की धातु की शांतिनाथ देरासर,
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेखराधनपुर __ संयमरत्नसूरि शांतिनाथ की धातु की संभवनाथ जिनालय, के पट्टधर कुलवर्धनसूरि प्रतिमा का लेख पादरा
शांतिनाथ की प्रतिमा शांतिनाथ जिनालय, का लेख
खंभात कुलवर्धनसूरि पार्श्वनाथ की शीतलनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख कुंभारवाडो, खंभात कुलवर्धनसूरि अजितनाथ की शांतिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख कनासानो पाडो, पाटन
मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त ३५१ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ११
२१६. १६६७
वही, भाग-२ लेखांक६१०
२१७. १६६७
वैशाख वदि७
वही, भाग-२ लेखांक ६४९
२१८. १६८३
ज्येष्ठ सुदि६
वही, भाग-१ लेखांक ३६१
गुरुवार
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आगमिकगच्छ १३वीं शती के प्रारंभ अथवा मध्य में अस्तित्व में आया और १७वीं शती के अंत तक विद्यमान रहा। लगभग ४०० वर्षों के लंबे काल में इस गच्छ में कई प्रभावक आचार्य हुए, जिन्होंने अपनी साहित्योपासना और नूतन जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना, प्राचीन जिनालयों के उद्धार आदि द्वारा पश्चिमी भारत (गुजरात, का में श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवंत बनाए रखने में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी स्मरणीय है कि वह यही काल है, जब संपूर्ण उत्तर भारत पर मुस्लिम शासन स्थापित हो चुका था, हिन्दुओं के साथ-साथ बौद्धों और जैनों के भी मंदिर-मठ समान रूप से तोड़े जाते रहे, ऐसे समय में श्वेताम्बर श्रमण संघ को न केवल जीवंत बनाए रखने बल्कि उसमें नई स्फूर्ति पैदा करने में श्वेताम्बर जैन आचायों ने अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
विक्रम संवत् की १७वीं शताब्दी के पश्चात इस गच्छ से संबद्ध प्रमाणों का अभाव है। अत: यह कहाजा सकता है कि १७वीं शती के पश्चात् इस गच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया होगा और इसके अनुयायी श्रमण एवं श्रावकादि अन्य गच्छों में सम्मिलित हो गए होंगे।
वर्तमान समय में भी श्वेताम्बर श्रमण संघ की एक शाखा त्रिस्तुतिकमत अपरनामत बृहद्सौधर्मतपागच्छ के नामसे जानी जाती है, किन्तु इस शाखा के मुनिजन स्वयं को तापगच्छ से उद्भूत तथा उसकी एक शाखा के रूप में स्वीकार करते हैं।१२ आगे हम इसका विवरण दे रहे हैं।
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