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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म अर्हम् पद के अक्षर जिसके चित्त में हमेशा स्फुरायमान रहते हैं। वह इस शब्दब्रह्म से परब्रह्म (मोक्ष) की प्राप्ति कर सकता है। हजारों वर्षों पर्यन्त योग की उपासना करने वाले इतर जन वास्तव में अरिहंत की सेवा लिए बिना परम पद की प्राप्ति नहीं कर सकते। जिस प्रकार रस से लिप्त ताँबा सोना बनता है। उसी प्रकार अरिहंत के ध्यान से अपनी आत्मा परमात्मा बनती है। कितने ही लोग 'नमो अरिहंताणं' यह सप्ताक्षरी मंत्र और कितने ही लोग अरिहंत, सिद्ध, आयरिय उवज्झाय साहू इस षोडशाक्षरी मंत्र का स्मरण करते हैं। सप्ताक्षरी (नमो अरिहंताणं) के लिए योगशास्त्र के आठवें प्रकाश में लिखा है - यदीच्छेद् भवदावाग्नेः समुच्छेदं क्षमादपि । स्मरेत्तदादिमंत्रस्य वर्णसप्तकमादिमम् ।। यदि संसार रूप दावानल का क्षण मात्र में उच्छेद करने की इच्छा हो, तो आदि मंत्र (नमस्कार) के आदि के सात अक्षर ( नमो अरिहंताणं) का स्मरण करना चाहिए। षोडशाक्षरी मंत्र की महत्ता के विषय में कहा गया है - यदुच्चारणमात्रेण, पापसंघ: प्रलीयते । आत्मादेयः शिरोदेयः न देयः षोडशाक्षरी || शरीर का नाश कर देना, मस्तक दे देना, परन्तु जिसके उच्चारण मात्र से ही पापों का संघ (समूह) नष्ट हो जाता है, ऐसा षोडशाक्षरी मंत्र किसी को भी नहीं देना चाहिए । मेरी सभी चाहनाएँ पूर्ण हो जाएँ । मुनिराज बहुत समझाते हैं, परन्तु वे नहीं समझते। वे मंत्रों के लोभ से लुब्ध मुग्ध जीव यह नहीं जानते कि क्या ये देवी-देवता हमारे पूर्वकृत कर्मों को मिटा सकने में समर्थ हैं ? वे भी तो कर्मपाश में बँधे हैं। स्वयं बँधा हुआ दूसरे को बंधनों से कैसे छुड़ा सकता है ? देवी-देवता हमको धन - पुत्र कलत्रादि देकर सुखी कर देंगे। उनकी प्रसन्नता से हमारा सारा का सारा कार्य चुटकी बजाते ही हो जाएगा। इस भ्रांत धारणा ने हमको पुरुषार्थहीन बना दिया है। जरा-सा दुःख आया अरिहंत याद नहीं आते, अपितु ये सकामी देवी-देवता याद आते हैं। मुझे आश्चर्य तो तब होता है जब ऐसे लोग चिकित्सकों के औषधोपचार से रोगमुक्त होते हैं तथा अकस्मात् कहीं या किसी ओर से कुछ लाभ होता है, तो चट से ऐसा कहे जाते सुनता हूँ, - "मैंने अमुक देव की या देवी की मानता ली थी, उन्होंने कृपा करके मुझे रोग से मुक्त कर दिया, मेरा यह काम सफल कर दिया। यदि उन की कृपा नहीं होती, तो मैं रोग से मर जाता । मेरा यह काम सफल नहीं होता। अब उनके स्थान पर जायेंगे, उन्हें तेल-सिन्दूर चढ़ायेंगे, जुहार करेंगे। अब की बार पूजा अच्छी तरह करेंगे, तो फिर कभी वे हमारा काम झट कर देंगे या प्रार्थना करने पर स्वप्न में आकर फीचर का अंक बता को देंगे, तो हम लखपति हो जायेंगे।” ऐसे भ्रामक एवं वृथाप्रलाप सुनकर मैं सोचता हूँ, 'हा ? क्या अज्ञान की लीला है। इन भ्रांत धारणाओं के बर्तुल में फँस कर हम अपने जीवन को कलंकित करते हैं। प्राप्त धन एवं शक्ति का अपव्यय करते हैं। आत्म-साधना से भी वंचित रहते हैं । वीतराग को अपना आराध्य मानने वालों एवं सुदेव, सुगुरु और सुधर्म को मानने वालों की यह विचारधारा ! आश्चर्य ? महदाश्चर्य ??" इस प्रकार के महामहिमाशाली सकल श्रुतागम-रहस्यभूत श्रीमंत्राधिराज महामंत्र नमस्कार को प्राप्त करके भी नाम तो जैन रखते हैं और अत्यंत लाभप्रदाता मंत्र को छोड़कर अन्य मंत्रों के लिए इधर-उधर भटकते देखे जाते हैं। मंत्रों के लोभ से लुब्ध होकर भटकने वाले इज्जत, धन एवं धर्म तक से हाथ धोते देखे गए हैं। सब ओर से लुट जाने के पश्चात् वे मंत्रेच्छु साधुओं के पास उनसे मंत्र प्राप्त कर बिना मेहनत के श्रीमंत बनने की इच्छा से आते हैं। उनकी सेवासुश्रूषा करते हैं। अकारण दयावान् वे मुनिराज उन्हें महामंगलकारी श्रीनवकार मंत्र देते हैं। तो वे कहते हैं- महाराज ? इसमें क्या धरा है। यह तो हमारे नन्हे-मुन्ने बच्चों को भी आता है। इसका स्मरण करके कितने ही वर्ष पूरे हो गए, परन्तु कुछ भी नहीं मिला कृपा कर के अन्य देवी-देवता की आराधना बतलाइए, जिसके साधन - स्मरण से पनिले कमिले तो १५ Jain Education International हम मंत्रों के लिए तथाकथित मंत्रवादियों से प्रार्थना करने से पहले उन मंत्रवादियों के जीवन का अवलोकन करेंगे, तो उनका जीवन इन भ्रामक ढकोसलों से पपतित हुआ ही दिखेगा। वे उदरपोषण के लिए कष्टपूर्वक अन्न जुटाते होंगे। पाँच-दस रुपयों में भक्तों को मंत्र-यंत्र देने वाले वे भक्तों के शत्रुओं को परास्त करने की वृथा डींग हाँकते हैं। भक्तों को धनधान्य से प्रमुदित करने वाले वे क्यों पाँच-दस रुपयों के मूल्य में मंत्र बेचते हैं ? उन्हें क्या आवश्यकता है, पाँच-दस की ? क्यों न वे मंत्रों के बल से आकाश से सोना बरसाते हैं ? क्यों वे रोगों से आक्रांत होते हैं ? For Private Personal Use Only méèmbèmbordare www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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