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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म संक्षिप्तीकरण "नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः" है और अरिहंत का अ, अशरीरी सिद्ध का अ, आचार्य का आ, अ-सि-आ-उ-सा-य नमः" यह मंत्र अरिहंत का 'अ सिद्ध' की उपाध्याय का उ और मुनि का म इन सबको परस्पर मिलाने से 'सि' आचार्य का 'आ' उपाध्याय का 'उ' साधु का 'सा' ये सब ॐकार निष्पन्न होता है, जो पंच परमेष्ठी का वाचक है - अ+ मिलकर 'असि-आ-उ-सा-य नमः' यह अत्यन्त संक्षिप्त स्वरूप अ = आ, आ + आ = आ, आ + उ = ओ, ओ+ म् = ओम् भी नमस्कारमंत्र का ही है। जो आदरणीय एवं स्मरणीय है। (ॐ) इस प्रकार ॐ पंच परमेष्ठी का वाचक है ही और अर्हम् कितने ही लोग ऐसे होते हैं कि जिन्हें "कौड़ी की कमाई नहीं की भी महिमा अपरम्पार है। श्रीहेमचन्द्रसूरिजी म. ने
और क्षण मात्र का समय नहीं" उनके लिए थोड़ा समय लगने सिद्धहेमशब्दानुशासन की वृहद् वृत्ति में लिखा है - वाले पद स्मरणीय हैं। जिन्हें समय बहुत मिलता है, परन्तु वे
अर्थमित्येतदक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्टिनो वाचर्क आलस्य के कारण ऐसे लघु मंत्रों का स्मरण करते हैं। उन्हें तो।
सिद्धचक्रस्यादिबीजं सकलागमोपनिषद्भुतमशेषविघ्न प्रमाद को छोड़कर मूल मंत्र का ही स्मरण करना चाहिए।
विघातनिघ्नमखिलदृष्टादृष्ट संकल्पकल्पद्रुमोपमं, प्रश्न - श्री नमस्कार-मंत्र का जाप किस प्रकार से करना शास्त्राध्ययनाध्यापनावधिप्रणिधयम्।" चाहिए?
'अर्हम्' ये अक्षर परमेश्वर परमेष्ठी के वाचक हैं। सिद्धचक्र उत्तर - कलिकाल-सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के आदि बीज हैं। सकलागमों के रहस्यभूत हैं, सब विघ्न - ने योगशास्त्र में श्रीनमस्कारमंत्र के जाप का विधान विस्तारपूर्वक सम्हों का नाश करने वाले हैं। सब दृष्ट यानी राज्यादि सुख और बतलाया है। अतः इस विषय के लिए योगशास्त्र के आठवें अदृष्ट यानी संकल्पित अपवर्ग-सुख का अभिलषित फल देने प्रकाश का ही अवलोकन करना चाहिए। श्रीमद् पादलिप्तसूरिजी में कल्पद्रम के समान हैं। शास्त्रों के अध्ययन और अध्यापन के ने श्री निर्वाणकलिका में जाप के भाष्य, उपांशु और मानस, ये आदि में इसका प्राणिधान करना चाहिए। अर्हत् का महत्व दिखलाते तीनों प्रकार दिखलाये हैं। जो इस प्रकार हैं - नमस्कार स्मरण हुए आचार्यश्री ने योगशास्त्र में भी फरमाया है - करने वालों से अन्य लोग भली प्रकार से सुन सकें, वैसे स्पष्ट
अकारादिहकारान्तं, रेफमध्यं सविन्दुकम् । उच्चारणपूर्वक, जो जाप होता है, उसे 'भाष्य'१४ जाप कहते हैं। तदेव परमं तत्त्वं, यो जानाति सतत्त्व वित् ।। भाष्य जाप की सिद्धि हो जाने पर स्मरण करने वाला
महातत्त्वमिदं योगी,यदैव ध्यायति स्थिरः । कण्ठगता वाणी से दूसरे लोग सुन तो न सकें परन्तु उनको यह
तदैवानन्दसंपद्मूमुक्तिश्रीरुपतिष्ठते ।। ज्ञात हो जाय कि जापकर्ता जाप कर रहा है; जो जाप करता है जिसके आदि में अकार है। जिसके अंत में हकार है। उसे उपांशजाप१५ कहते हैं।
बिन्दु सहित रेफ जिसके मध्य में है। ऐसा अर्हम् मंत्र-पद है। उपांशुजाप की सिद्धि हो जाने पर जाप करने वाला स्वयं
वही परम तत्त्व है। उसको जो जानता है - समझता है, वही ही अनभव करता है परन्त दसरों को ज्ञात नहीं हो सकता. उस तत्त्वज्ञ है। जब योगी स्थिरचित्त होकर इस महातत्त्व का ध्यान जाप को 'मानस६' जाप कहते हैं।
करता है, तब पूर्ण आनन्दस्वरूप उत्पत्तिस्थान रूप मोक्ष - विभूति
उसके आगे आकर प्राप्त होती है। इस प्रकार भाष्य, उपांशु और मानस जाप करने वालों में
वाचकप्रवर श्रीमद्यशोविजयजी भी फरमाते हैं - कोई सम्पूर्ण नवकार का और कोई अ-सि-आ-सा-उ -य
अर्हमित्यक्षरं यस्य चित्ते स्फुरति सर्वदा । नमः का तो कोई नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुम्यः का तो
परं ब्रह्म ततः शब्दब्राह्मणः सोऽधिगच्छति ।।२७।। कोई ॐ अर्हन्नमः इस अत्यन्त संक्षिप्त परमेष्ठी-मंत्र का स्मरण
परः सहस्त्राः शरदां, परे योगमुपासताम् । करते हैं।
हन्तार्हन्तमनासेव्य, गन्तारो न परं पदम् ।।२८।। ॐ अर्हन्नमः मंत्र में पंच परमेष्ठि का समावेश इस प्रकार होता है -
आत्मायमहतो ध्यानात् परमात्मत्वमश्नुते । अरिहंता असरीरा आयरिया उवज्झाया तहा मुणिणो ।
रसविद्धं यथातानं स्वर्णत्वमधिगच्छति ।।२९।। पढक्खर निप्फण्णो ॐकारो पंच परमिट्ठी ।।
(द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका)
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