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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
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देता है। आश्चर्य यह है कि स्वीमुक्ति एवं केवलीकवलाहार का निषेध करने वाली दिगम्बर-परम्परा का उल्लेख तो विक्रम की आठवीं शती के पूर्व किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थ में नहीं मिलता है। साहित्यिक दृष्टि से यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में जो उल्लेख उपलब्ध हैं वे लगभग ईसा की ५वीं शताब्दी या उसके पश्चात् के हैं। यद्यपि ऐसा लगता है कि इसके पूर्व भी यह सम्प्रदाय अस्तित्व में तो अवश्य ही आ गया था। जहाँ तक अभिलेखीय साक्ष्यों का प्रश्न है, मथुरा के ईसा की प्रथम और द्वितीय शताब्दी के जो जैन अभिलेख उपलब्ध हैं, इनमें गणों शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों के उल्लेख मिलते हैं। ये समस्त गण, कुल, शाखायें और सम्भोग कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार ही हैं। दिगम्बर साहित्य में हमें इन गणों, शाखाओं एवं कुलों का किञ्चित भी संकेत उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि मथुरा से उपलब्ध उन सभी मूर्तियों और आयागपट्टों (जिनपर ये अभिलेख अंकित है) में तीर्थङ्कर को नग्न रूप में अंकित किया गया है किन्तु वहीं उसी काल में कल्पसूत्र एवं आचारात्र (द्वितीय श्रुतस्कंध में उल्लिखित महावीर के गर्भपरिवर्तन की घटना का अंकन भी उपलब्ध होता है २४ । साथ ही उन अभिलेखों में कल्पसूत्र के अनुरूप गण, कुल, शाखा और संभोगों के उल्लेख यह सूचित करते हैं कि ये सभी अभिलेख और मूर्तियाँ दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध नहीं हैं पुनः मथुरा के प्राचीन शिल्प में मुनि के हाथ की कलाई पर लटकते हुए वस्त्र खण्ड का अंकन भी जिससे वे अपनी नग्नता को छिपाये हुए हैं, इस शिल्प को दिगम्बर- परम्परा से पृथक् करता है। पुनः मथुरा का जैन शिल्प यापनीय भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यापनीय परम्परा की उत्पत्ति इससे परवर्ती है इसमें आर्य कृष्ण (अज्ज कण्ह) का जिनके शिष्य शिवभूति से आवश्यक मूलभाष्य में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास माना गया है, नामोल्लेख पूर्वक अंकन उपलब्ध है। पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इसे अर्धस्फालक सम्प्रदाय का माना है", किन्तु इस सम्प्रदाय के अस्तित्व का दशवीं शती के पूर्व का कोई भी साहित्यिक या अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है पं० नाथूरामजी प्रेमी के अनुसार ऐसा कोई सम्प्रदाय नहीं था। यह मात्र संघभेद के पूर्व की स्थिति है" सत्य तो यह है कि यापनीयों या बोटिकों ने आर्य कृष्ण के उसी वखखण्ड का विरोध करके अचेलक परम्परा के पुनः स्थापन का प्रयत्न किया था। देश-काल के प्रवाह में जैन संघ में जो परिवर्तन आ रहे थे उसी का विरोध यापनीयों या बोटिकों की उत्पत्ति का कारण बना।
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श्वेताम्बर - परम्परा में मतभेद और संघभेद सम्बन्धी जो सूचनायें उपलब्ध हैं, उनमें प्रथमतः स्थानाङ्ग एवं आवश्यकनियुक्ति में सात निह्नवों की चर्चा है। ये सात निह्नव जामालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल हैं। इनमें प्रथम दो महावीर के जीवन काल में और शेष पाँच उनके निर्वाण के पश्चात् २१४ से ५८४ वर्ष के बीच में हुए हैं२८ । किन्तु इनमें बोटिक या बोडिय का कहीं भी उल्लेख नहीं है। हम ऊपर देख चुके हैं कि बोडिय (बोटिक) का सर्वप्रथम उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में है। इसके अनुसार वीर-निर्वाण के ६०९ वर्ष के पश्चात् रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में अज्ज कन्ह के शिष्य शिवभूति द्वारा बोटिक परम्परा की उत्पत्ति हुई। आवश्यकमूलभाष्य आवश्यक नियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य के मध्यकाल की रचना है। उपलब्ध आवश्यकनिर्युक्ति वीर निर्वाण के पश्चात् ५८४ वर्ष तक की अर्थात् ईसा की प्रथम शती की घटनाओं का उल्लेख करती है, अतः उसके पश्चात् ही उसका रचना-काल माना जा सकता है। विशेषावश्यकभाष्य का रचनाकाल सामान्यतया ईसा की छठी शताब्दी का अन्तिम चरण (शक ५३१ के पूर्व ) माना जाता है" । अतः इस अवधि के बीच ही बोटिक मत या यापनीय परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ होगा। आवश्यकमूलभाष्य में जो वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शती में इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति का उल्लेख है, वह किसी सीमा तक सत्य प्रतीत होता है ।
दिगम्बर- परम्परा में जैन संघ के विभाजन की सूचना देने वाला कोई प्राचीन ग्रंथ नहीं है, मात्र ई० सन् ९४२ (वि० सं० १९९९) में देवसेन द्वारा रचित 'दर्शनसार है" इस ग्रन्थ के अनुसार विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र देश के वलभी नगरी में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई। इसमें यह भी कहा गया है कि श्रीकलश नामक श्वेताम्बर मुनि से विक्रम संवत् २०५ में पापनीय संघ उत्पन्न हुआ। चूँकि 'दर्शनसार' आवश्यकमूलभाष्य की अपेक्षा पर्याप्त परवतीं है अतः उसके विवरणों की प्रामाणिकता को स्वीकार करने में विशेष सतर्कता की आवश्यकता है, फिर भी इतना निश्चित है कि जब आवश्यकमूलभाष्य और दर्शनसार दोनों ही वि० सं० १३६ अथवा १३९ या वीर निर्वाण संवत् ६०६ या ६०९ में संघ भेद की घटना का उल्लेख करते हैं तो एक दूसरे से पुष्टि होने के कारण इस तथ्य को अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता कि विक्रम सम्वत् की प्रथम शती के अन्त या द्वितीय शताब्दी के प्रारम्भ में जैनों में स्पष्ट रूप से संघभेद हो गया। 'दर्शनसार' में इस संघ भेद की घटना के ७० वर्ष पश्चात् में भी यापनीय संघ की उत्पत्ति का उल्लेख है । आवश्यकमूलभाष्य कहा गया है कि शिवभूति के शिष्य कौडिन्य और कोट्टवीर से यह परम्परा आगे चली५ । अतः यह मानने में विशेष बाधा नहीं आती कि यही बोटिक सम्प्रदाय जिसका उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में मिलता है, ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्त में एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ होगा। यद्यपि यह प्रश्न अनिर्णीत ही है कि उसने पूर्ण स्वतंत्र होकर 'यापनीय' नाम कम धारण किया, क्योंकि 'यापनीय' [ ८१ ]ম
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इस प्रकार अभिलेखीय और साहित्यिक दोनों ही प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि ईसा की लगभग दूसरी शताब्दी तक चाहे महावीर के धर्मसंघ में विभिन्न गण, शाखा, कुल और सम्भोग अस्तित्व में आ गये थे, फिर भी श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय जैसे वर्गों का स्पष्ट विभाजन नहीं हो पाया था । अतः यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में श्वेताम्बर दिगम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय ईसा की तीसरी शती या उसके पश्चात् ही अस्तित्व में आये हैं। यद्यपि इस संघ भेद के मूल कारण इसके पूर्व भी भीतर-भीतर अपनी जड़ें जमा चुके थे ।
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