SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्दसूरि स्मारकास जैन दर्शन एवं भट्टअकलंक ने क्रमशः सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक केवल ज्ञान की प्राप्ति न हो जाए या उसका वर्तमान मनुष्यजन्म में इसे भिन्न क्रम में रखा है यथा - अनुगामी, अननुगामी, छूटकर उसे भवान्तर की प्राप्ति न हो जाए, अवस्थित अवधिज्ञान वर्धमान, हीयमान, अवस्थित एवं अनवस्थित। कहलाता है। अर्थात् जिसे अवस्थित अवधिज्ञान होता है, उससे (१) अनानगामी६३- जो अवधिज्ञान केवल अपने उत्पत्ति वह तब तक नहीं छूटता जब तक कि उसको केवलज्ञानादि की स्थल में ही योग्य विषयों को जानता है-अनानुगामी अवधिज्ञान प्राप्ति न हो जाए क्योंकि केवल ज्ञान क्षायिक है, उसके साक्ष: है। जैसे किसी ज्योतिषी या निमित्तज्ञानी आदि के विषय में देखा क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता। यदि उसी जन्म में केवल जाता है कि वह एक निश्चित स्थान पर ही प्रश्नों का उत्तर दे शान ज्ञान हो, तो वह जन्मान्तर में भी उस जीव के साथ ही जाता है। सकता है सर्वत्र नहीं। उसी प्रकार अनानुगामी अवधिज्ञान जिस गोम्मटसार में अवधिज्ञान के सामान्य से तीन भेद किए स्थान पर उत्पन्न होता है उससे अन्यत्र वह काम नहीं कर पाता। गए हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। भवप्रत्यय-अवधि (२) आनुगामी६४- जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्ति-स्थल और । ना आरमान और नियम से देशावधि ही होता है तथा परमावधि एवं सर्वावधि स्थानान्तर दोनों ही जगह अपने योग्य विषयों को जानता है, वह नियम से क्षयोपशमनिमित्तक या गणप्रत्यय ही होते हैं। गोम्मटसार आनुगामी अवधिज्ञान है। जैसे सूर्य पूर्व दिशा के साथ-साथ में द्रव, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर भी अवधि ज्ञान का अन्य दिशाओं को भी प्रकाशित करता है। विवेचन मिलता है जिसके अनुसार जघन्य भेद से लेकर उत्कृष्ट भेद पर्यन्त अवधिज्ञान के जो असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं वे (३) हीयमानक५ - असंख्यात द्वीप समुद्र, पृथ्वी, विमान सब ही द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की अपेक्षा से प्रत्यक्षतया रूपी और तिर्यक, ऊपर अथवा नीचे जितने क्षेत्र का प्रमाण लेकर द्रव्य को ही ग्रहण करते हैं तथा उसके संबंध में संसारी जीव उत्पन्न हुआ है, क्रम से उस प्रमाण से घटते-घटते जो अवधिज्ञान द्रव्य को भी जानते हैं किन्तु सर्वावधिज्ञान में जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण तक के क्षेत्र को विषय करने आदि भेद नहीं हैं। वह निर्विकल्प एक प्रकार का है। वाला रह जाए तो उसे हीयपालक अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे आवश्यकनियुक्ति में अवधिज्ञान को क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाने पर भी यदि उससे योग्य ईंधन आदि तीव्र, मंद इत्यादि चौदह दृष्टकोणों से विवेचित किया गया है। न मिल तो धीरे-धीरे बुझने या कम होने लगती है। विशेषावश्यकभाष्य में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (४) वर्धमानक ६ - जो अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें एवं भव इन सात निक्षेपों के माध्यम से अवधिज्ञान को विश्लेषित भाग आदि के बराबर प्रमाण लेकर उत्पन्न हुआ हो और उस किया गया है। प्रमाण से बढ़ता ही चला जाए तो उसे वर्धमानक अवधिज्ञान , २) मन:पर्यायज्ञान तत्वार्थाधिगम सूत्र भाष्य के अनुसार कहते हैं। मनःपर्याय ज्ञान के संबंध में जैन दार्शनिकों में दो मत हैं-प्रथममत (५) अनवस्थित ७- जो अवधिज्ञान एक रूप न रहकर अनेक नन्दीसूत्र, आवश्यकनियुक्ति एवं तत्त्वार्थाधिगम मूल भाष्य पर रूप धारण करे वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। यह अवधिज्ञान आधारित है, जिसके अनुसार मनः पर्याय ज्ञान के द्वारा दूसरे के उत्पन्न प्रमाण से कभी घटता है, कभी बढ़ता है और कभी छूट मन में चिंत्यमान अर्थों को जाना जाता है, दूसरा मत भी जाता है। जैसे किसी जलाशय की लहरें वायुवेग का निमित्त विशेषावश्यकभाष्य नन्दीचूर्णि आदि पर आधारित है, जिसके पाकर कभी ऊँची-नीची या नष्टोत्पन्न हुआ करती हैं उसी प्रकार अनुसार मनः पर्याय ज्ञान द्वारा मात्र दूसरे की मन की पर्ययों को शुभ अथवा अशुभरूप जैसे भी परिणामों का इसको निमित्त जाना जाता है और उसमें चिंत्यमान पदार्थों का ज्ञान अनुमान के मिलता है उसके अनुसार इस अवधिज्ञान की हानि, वृद्धि आदि द्वारा होता है। जीव के द्वारा ग्रहीत और मन के आकार में परिणत अनेक अवस्थाएँ हुआ करती हैं। द्रव्यविशेषरूप मनोवर्गणाओं के आलंबन से विचाररूप पर्यायों (६) अवस्थित८ - वह अवधिज्ञान जो जितने प्रमाण क्षेत्र के को बिना इन्द्रियादि साधनों के साक्षात् जान लेना मनःपर्यय ज्ञान विषय में उत्पन्न हो. उससे वह तब तक नहीं छटता जब तक कि है। संपूर्ण प्रमादों से रहित और जिसे मनःपर्याय ज्ञानावरण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy