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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन अवधि, मनःपर्याय एवं केवल इन तीनों ज्ञानों का ही समावेश उमास्वाति ने जो यथायोग्य ५४ शब्द का निर्देश किया है उसका किया है और इन्हीं की व्याख्या प्रत्यक्ष के रूप में की है। 'अक्ष' तात्पर्य है कि सभी देव अथवा नारकियों का अवधिज्ञान समान शब्द का अर्थ आत्मा मान लेने पर एवं तदनुसार केवल आत्म नहीं होता। जिसमें जितनी योग्यता है उसके अनुसार उन्हें उतना -सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मान लेने पर लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष ही होता है। अवधेय है कि तीर्थंकरों को जन्म से अवधि ज्ञान रूप से प्रसिद्ध इन्द्रिय-प्रत्यक्ष मानस - प्रत्यक्ष की समस्या के होने पर भी उनके अवधिज्ञान को भवप्रत्यय नहीं मानते, क्योंकि समन्वय हेतु उमास्वाति के उत्तरवर्ती आचार्यों ने प्रत्यक्ष के उक्त अवधि में तीर्थंकर की आत्मा के गुण कारणभूत हैं। सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष एवं पारमार्थिक-प्रत्यक्ष ये दो भेद किए। प्रश्न उठता है कि देवों तथा नारकों को उस भव में जन्मग्रहण इन दोनों भेदों का कोई सूचन तत्त्वार्थाधिगमसूत्र या भाष्य में समान अवधिनात पाप्त हो जाता है उन्हें नियमाटि नहीं मिलता। उमास्वाति ने स्पष्ट रूप से इन्द्रियादि निमित्त से पालन करने की आवश्यकता नहीं होती, तो मनुष्यादि को इसके होने वाले ज्ञान को परोक्ष की संज्ञा दी है, प्रत्यक्ष की नहीं। ऐसा । लिए प्रयास क्यों करना पड़ता है? प्रतीत होता है कि बाद के आचार्यों ने कमोबेश नैयायिकों से प्रभावित होकर अपनी प्रमाणमीमांसा में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का वस्तुत: क्षयोपशम तो सभी के लिए आवश्यक है। अंतर समावेश किया और उमास्वाति के बताए अवधि, मन:पर्याय साधन में है। जो जीव केवल जन्म मात्र से क्षयोपशम कर सकते एवं केवल को पारमार्थिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी। अत: हम प्रथमतया हैं, उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है एवं जिन्हें इसके लिए विशेष अवधि, मनःपर्यय की और केवल की ही विवेचना करेंगे एवं प्रयत्न करना पड़ता है, उनका अवधिज्ञान क्षयोपशम निमित्तक या गुणप्रत्यय है। उमास्वाति 'देवनारकाणाम्' पद से सम्यग्दृष्टियों यथास्थान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की भी संक्षिप्त व्याख्या करेंगे। का ग्रहण करते हैं, क्योंकि सूत्र में अवधिपद का ग्रहण है। (१) अवधिज्ञान मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है। अतः उमास्वाति अवधि का अर्थ है - सीमा या मर्यादा, अर्थात् वह यह मानते हैं कि देव व नारकियों में भी उन्हीं को भव के प्रथम मर्यादित ज्ञान जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा इन्द्रिय समय में अवधिज्ञान होता है, जो सम्यग्दृष्टि होते हैं। मिथ्यादृष्टियों और मन की सहायता के बिना केवल रूपी पदार्थों को स्पष्ट रूप को विभंगज्ञान होता है।६।। से जानता है, अवधिज्ञान है। यह ज्ञान अवधिज्ञानावरण के (२) गुण प्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तक)- क्षयोपशमनिमित्तक क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। ज्ञान शेष दो गतिवाले जीव तिर्यञ्च और मनुष्य को होता है। .. अवधिज्ञान दो प्रकार का हैं५१- (१) भवप्रत्यय (२) गुण अवधिज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों का उदय रहते हुए सर्वघाती स्पर्धकों का उदयभावी क्षय और अनुदय प्राप्त इन्हीं के प्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तिक) सद्वस्थारूप उपशम इन दोनों के निमित्त से जो होता है वह (१) भवप्रत्यय- नारक और देवों को जो अवधिज्ञान होता है, क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है। तिर्यञ्च और मनुष्य को उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं५२। भव कहते हैं--आयुनाम होने वाला यह गुण प्रत्यय अवधिज्ञान सबको नहीं होता, उनमें कर्म के उदय का निमित्त पाकर होने वाली जीव की पर्यायों को भी जिनको सामर्थ्य है उन्हीं को होता है। असंज्ञी और अपर्याप्तकों और प्रत्यय शब्द का अर्थ है - हेतु अथवा निमित्त कारण। अतः को यह सामर्थ्य नहीं है। संज्ञी और पर्याप्तकों में भी सबको यह भव ही जिसमें निमित्त हो, वह भवप्रत्यय है। नारक और देवों के सामर्थ्य नहीं होती केवल उनको, जिनके सम्यग्दर्शनादि निमित्तों अवधिज्ञान में उस भव में उत्पन्न होना ही कारण माना गया है। के मिलने पर अवधिज्ञानावरण कर्म शांत एवं क्षीण हो गया जैसे पक्षियों का आकाश में गमन करना स्वभाव से या उस भव हो५९। क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छह प्रकार का होता है । में जन्म लेने मात्र से ही आ जाता है, उसके लिए शिक्षा या तप कारण नहीं है, उसी प्रकार जो जीव नरकगति या देवगति को (१) अनानुगामी (२) आनुगामी (३) हीयमानक (४) प्राप्त होते हैं, उन्हें अवधिज्ञान भी स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।३। ' १३ वर्धमानक (५) अनवस्थित और (६) अवस्थित। आचार्य उमास्वाति ने इन छह ज्ञानों को इसी क्रम में रखा है। पूज्यपाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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