________________
- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व तात्पर्य यह है कि गुणवान चरित्रवान वक्ता का वचन घी से प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अधिक तेजस्वी होता है, जबकि चरित्रहीन वक्ता का वचन बिना तेल बाती के दीपक की तरह मिट्टी का पिंडमात्र होता है। एक पाश्चात्य चिंतक रोथोका का कथन है- वक्तृत्व कला केवल शब्दों के चुनाव में ही नहीं है, वरन शब्दों के उच्चारण में आँखों में, चेष्टाओँ में और जीवन व्यवहार में भी होती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि वाणी को प्रभावशाली और वक्तृता को तेजोदीप्त बनाने के लिए वक्ता को चरित्रसम्पन्न या गुणवान होना भी आवश्यक है। एक चरित्रहीन व्यक्ति यदि चरित्र की उत्तमता की बात कहे अथवा एक जुआरी जुआ न खेलने का परामर्श दे तो उसका क्या प्रभाव पड़ेगा? यह विचारणीय है। स्वामी विवेकानंद विश्व धर्मपरिषद में सम्मिलित होने के लिए अमेरिका गये थे। वहाँ सामान्यतः सम्बोधन में लेडिज एण्ड जेन्टलमैन बोला जाता है, किन्तु जब स्वामी विवेकानंद बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने कहा सिस्टर्स एण्ड ब्रदर्स आफ अमेरिका उनके इस सम्बोधन ने जादू के समान असर किया
और फिर तो अमेरिका के निवासी उनका भाषण मंत्रमुग्ध हो सुनते रहे वाणी में ऐसा जादुई प्रभाव या चमत्कार हो तो बात कुछ और ही होती है। 20 अब हम अपनी मूल बात पर आते हैं। आचार्य भगवन् श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. एक कुशल प्रवचनकार थे। एक कुशल प्रवचनकार में जितने गुण होने चाहिये वे सब उनमें विद्यमान थे।उनकी वाणी में ओज था, प्रवाह था। भाषा भावपूर्ण बोधगम्य थी। वे समयानुकूल प्रवचन फरमाने में प्रवीण थे। घंटों धारा प्रवाह बोल सकते थे। किन्तु एक ही विषय पर एक ही वक्ता को घंटों सुनने में श्रोता ऊबने लगता है, वह विचार करने लगता है कि अब यहाँ से चल देना चाहिये। आचार्य भगवन् के प्रवचनों को सुनते समय श्रोता ऐसा विचार कदापि नहीं करता था उसका कारण यह था कि आचार्य भगवन् अपने प्रवचन में विषय को मोड़ देने की क्षमता रखते थे। वे मनोविज्ञान के भी ज्ञाता थे। जानते थे कि लगातार एक समान विषय को सुनते-सुनते श्रोता ऊब जाता है, इसलिए अपने प्रवचन में वे श्रोताओं की मानसिकता में परिवर्तन लाने की दृष्टि से कोई दृष्टांत जोड़ दिया करते। दृष्टांत की प्रस्तुति से श्रोता एकदम हलका-हलका अनुभव करते। उनका मनोरंजन भी हो जाया करता। श्रोताओं की मानसिकता की पहचान कर धारा प्रवाह से चल रहे प्रवचन की धारा को मोड़ देना विरले ही प्रवचनकारों में देखने को मिलता है।
आचार्य प्रवर श्रीमद् यतीन्द्रसूरीश्वर जी. म. इस अर्थ में भी कुशल प्रवचनकार थे। उनके प्रवचन अपने विषय की सीमा को लाँघते नहीं थे। आपके प्रवचन एक ओर शास्त्रीय प्रमाणों से पुष्ट होते हैं तो दूसरी ओर विषय की गूढ़ता को स्पष्ट करने के उद्देश्य से दृष्टांतयुक्त भी होते थे। आप की प्रवचन फरमाने की शैली इतनी आकर्षक कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर प्रवचनपीयूष का पान करता ही रहता, वह उसमें इतना डूब जाया करता था कि उसे अपने अस्तित्व का भी भान नहीं रहता। वह उस समय स्तब्ध रह जाता था जब प्रवचन-समाप्ति की घोषणा होती थी। इसी को एक प्रवचनकार की सफलता कहते हैं।
आचार्य भगवन के प्रवचन सामान्यतः समसामयिक विषयों पर आधारित होते थे। जैन आचार्य होने के नाते उनके प्रवचनों के विषय अपने धर्म के अनुकूल ही होते थे, किन्तु उनमें समसामयिकता का
Jain Education International
For Privale & Personal Use Only
www.jainelibrary.org