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प्राकृत महाकाव्यों में ध्यनितत्त्य
विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव...
आचार्य विश्वनाथ कविराज ने अपने प्रसिद्ध रस की व्यंजना संभव ही नहीं है। रस अनिवार्यतः ध्वनिरूप है काव्यानुशासन साहित्यदर्पण में ध्वनितत्त्व से सम्पन्न काव्य को और रसध्वनि ही सर्वोत्तम ध्वनि है और वही काव्य की आत्मा उत्तम काव्य की संज्ञा दी है। वाच्यातिशायिनि व्यङ्ग्ये ध्वनिस्त है, 'काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति' ध्वन्यालोक। काव्यमुत्तमा: (अध्याय ४-कारिका १) अर्थात् वाच्य से अधिक
साहित्यशास्त्रियों के मतानुसार पाँच हजार तीन सौ पचपन चमत्कारजनक व्यंग्य को ध्वनि कहते है, और जिस काव्य में प्रकार की ध्वनियाँ होती हैं. परंत ध्वनि के शद्ध भेद कल इक्यावन ध्वनि की प्रधानता होती है। उसे ही उत्तम काव्य कहा जाता है।
ह! हैं। इनमें भी कुल अट्ठारह ध्वनियों के बारह भेदों के अतिरिक्त शेष वस्तुत: व्यंग्य ही ध्वनि का प्राण है। प्रसिद्ध ध्वनिप्रवर्तक आचार्य
___ छह इस प्रकार हैं--१.शब्दशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि २. शब्दशक्त्युद्भव आनन्दवर्द्धन (नवीं शती) के अनुसार ध्वनि (ध्वन् + इ) काव्य
अलंकारध्वनि, ३. शब्दार्थशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि, ४. की आत्मा है या वह एक ऐसा काव्यविशेष है, जहाँ शब्द और अर्थ
असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि तथा अविवक्षितवाच्य के दो भेद, ५. अपने मुख्यार्थ को छोड़ किसी विशेष अर्थ को व्यक्त करते हैं।
अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य एवं ६. अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि । वस्तुतः ध्वनि काव्य के सौंदर्यविधायक तत्त्वों में अन्यतम है।
प्राकृत के उत्तम महाकाव्यों में ये समस्त ध्वनिभेद गवेषणीय सभी विद्याएं व्याकरणमलक हैं, इसलिए ध्वनि का के
क है, इसालए ध्वान का हैं, क्योंकि उनमें ध्वनि तत्त्व की समायोजना विशेष रूप से हुई। आदिस्रोत वैयाकरणओं के स्फोट सिद्धांत में निहित है। ध्वन्यालोक
' है। तभी तो ध्वनिशास्त्रियों ने ध्वनितत्त्व की विवेचना के क्रम में की वृत्ति (१.१६) से स्पष्ट है कि साहित्यशास्त्रियों ने ध्वनि शब्द
प्राकृत गाथाओं को साग्रह संदर्भित किया है। आनन्दवर्द्धन और को वैयाकरणों से आयत्त किया है। वैयाकरणों के अनुसार
विश्वनाथ के लिए तो प्रसिद्ध प्राकृत काव्य गाहासत्तसई इस स्फोट को अभिव्यक्त करने वाले वर्गों को ध्वनि कहते हैं।
प्रसंग में विशेष उपजीव्य रहा है। प्रसिद्ध वैयाकरण आचार्य भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में कहा है कि वों में संयोग और वियोग, अर्थात् मिलने और हटने से जो
ईसवी की प्रथम शती के ख्यातनामा प्राकृतकवि राजा हाल स्फोट उत्पन्न होता है, शब्द या वर्ण जनित वही शब्द ध्वनि है ।
सातवाहन की प्रसिद्ध शतक-काव्यकृति 'गाहासत्तसई' शास्त्रीय और फिर स्फोट का परिचय या परिभाषा प्रस्तुत करने के क्रम
महाकाव्य की परिभाषा की सीमा में यद्यपि नहीं आती है, उसकी में परम प्रसिद्ध शब्दशास्त्री आचार्य भर्तहरि ने कहा है कि शब्द गणना प्राकृत मुक्तककाव्य में होती है, तथापि अपनी गणात्मक के दो भेदों प्राकृत और वैकृत में प्राकृत ध्वनि स्फोट के ग्रहण विशिष्ट
विशिष्टता से वह महाकाव्यत्व की गरिमा अवश्य ही आयत्त में कारण है। शब्द की अभिव्यक्ति से जो आवाज होती है, वह
करती है, जिस प्रकार महाकवि कालिदास का मेघदूत काव्य वैकृत ध्वनि है और वह भी स्फोटस्वरूप ही है। वस्तुतः ध्वनि
खण्डकाव्य होते हुए भी अपने रसात्मक गुणवैशिष्टय से महाकाव्यत्व और स्फोट में एकात्मता है।
के मूल का अधिकारी है, इसे महाकवि माघ के शिशुपालवध
की समकक्षता प्रदान कर कहा गया है, मेघे माघे गतं वयः। ध्वनिवादी आचार्य रस को ध्वनि का अंग मानते हैं। उन्होंने ध्वनि के मुख्यतः तीन भेदों का निर्देश किया है--
महाकवि की वाणी रूप काव्य में निहित उसके अंग रूप वस्तुध्वनि, अलंकारध्वनि और रसादिध्वनि। आनन्दवर्द्धन ने
अलंकार आदि में व्यंग्य या ध्वनि की स्थिति उसी प्रकार होती रस को व्यंग्य कहा है, अर्थात् रस तो ध्वनि रूप ही हो सकता है,
है, जिस प्रकार सुंदरियों के प्रत्यक्ष दृश्यमान अवयवों के सौंदर्य उसका कथन नहीं किया जा सकता। और फिर ध्वनि के बिना क आतारक्त उन अगा में माता के आब या छाया का तरलता wriraordinaroordaroranardiarosarorandirird ११७Harirandiriraniranirarorariridwararoranstarsuasini
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