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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश वन्दन
कोटि कोटि वन्दना रे...
भयमुक्त थे.....
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संसार में रहे हुए व्यक्ति को अनेक प्रकार के भय रहते हैं। वह व्यक्ति भय मुक्त हो ही नहीं सकता। यदि भयमुक्त/निर्भय कोई होता है तो मुनि। इस संदर्भ में भतृहरि ने बहुत ही सुंदर लिखा हैं
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भोगे रोग भयं कुले च्युति भयं, वित्ते नृपायाद् भयं । माने दैन्य दयं बले रिपु भयं, रूपे जराया भयं ॥ शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं, कार्ये कृतान्ताद्' भयं । सर्व वस्तु भयावहं भुदि नृणां, वैराग्यमेवा भयम् ॥
तात्पर्य यह है कि भोगों में रोग का भय है, ऊंचे कुल में पतन का भय है। धन में राजा का, मान में दीनता का, बल में शत्रु का तथा रूप में वृद्धावस्था का भय है। साथ ही शास्त्र में वाद-विवाद का, गुण में दुष्टजनों का तथा शरीर में काल का भय होता है इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सभी वस्तुएं भयपूर्ण होती हैं। बस, भय से रहित तो केवल वैराग्यावस्था है। जिस साधु ने वैराग्य प्राप्त कर ली, उसे इनमें से किसी का भी भय नहीं रह जाता। वह भय मुक्त हो जाता है। परम श्रद्धेय आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. इस अवस्था को प्राप्त कर भय मुक्त हो चुके थे। उनके दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर प्रकाशित होने वाले दीक्षा शताब्दी ग्रंथ के आयोजन की सफलता के लिए हार्दिक मंगल मनीषा । पूज्य गुरुदेव के पावन श्री चरणों में बारंबार वंदन ।
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
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प्रधान सम्पादक
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श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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श्रद्धांजलि अर्पितकर्ता
महावीरचन्द्र शांतिलालजी मूथा आहोर तनकू
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