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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य को सात्मीभाव किया तथा आगमसिद्ध अपने मन्तव्यों को भी इनका स्मरण किया गया है। डा. ए.एन. उपाध्ये ने इनका जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब परिचय देते हुए जैन-संदेश के शोधाङ्क १२ में लिखा है कि ये छोटे-छोटे ग्रंथों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का मूलगुण्ड नामक स्थान पर आत्मत्याग को स्वीकार करके तथा न्याय प्रमाण स्थापना युग का द्योतक है।
कोप्पणाद्रि पर ध्यानस्थ हो गए तथा समाधिपूर्वक मरण किया। अकलंक देव का समय ७२०-७८० सिद्ध होता है। वीरसेन आचार्य - ये उस मूलसंघ पञ्चस्तूपान्वय के उनके ग्रंथों में अन्य दर्शनों के आचार्यों के साथ बौद्ध आचार्य आचार्य थे. जो सेनसंघ के नाम से लोक में विश्रत हआ है। ये धर्मकीर्ति. प्रज्ञाकरगुप्त, धर्माकरदत्त (अर्चट),शांतभद्र, धर्मोत्तर, आचार्य चंद्रसेन के प्रशिष्य और आर्यनन्दी के शिष्य तथा महापराण कर्णकगोमि तथा शांतरक्षित के ग्रंथों का उल्लेख या प्रभाव आदि के कर्ता जिनसेन के गरु थे। ये षटखण्डागम पर बहत्तर दष्टिगोचर होता है। अकलंक जैन-न्याय के प्रतिष्ठाता माने जाते हजार श्लोकप्रमाण धवला टीका तथ. यप्राभूत पर बीस हैं। उनके पश्चात् जो जैन ग्रंथकार हुए, उन्होंने अपनी न्यायविषयक हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखकर दिवङ्गत हो गए। रचनाओं में अकलकंदेव का ही अनुसरण करते हुए जैन-न्याय जिनसेन ने इन्हें कवियों का चक्रवर्ती तथा अपने आपके द्वारा विषयक साहित्य की श्रीवृद्धि की और जो बातें अकलंक देव ने परलोक का विजेता कहा है। इनका समय विक्रम की ९वीं शती का अपने प्रकरणों में सूत्र रूप में कही थीं, उनका उपपादन तथा पर्वार्द्ध है।९। गणभद्राचार्य के उल्लेख से ज्ञात होता है कि वीरसेनाचार्य विश्लेषण करते हुए दर्शनान्तरों के विविध मन्तव्यों की समीक्षा द्वारा 'सिद्धभपद्धति' नामक ग्रंथ की रचना की गई थी। में बृहत्काय ग्रन्थ रचे, जिससे जैन न्याय रूपी वृक्ष पल्लवित और पुष्पित हुआ। अकलङ्कदेव की रचनाएँ निम्नलिखित हैं
जिनसेन प्रथम - हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन
पुन्नाट संघ के थे। ये महापुराणादि के कर्ता जिनसेन से भिन्न हैं। १. तत्त्वार्थवार्तिक, २, अष्टशती, ३. लघीयस्त्रय सविवृत्ति,
इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण और दादागुरु का नाम जिनसेन ४. न्याय विनिश्चय, ५. सिद्धिविनश्चय और ६. प्रमाणसंग्रह।
था। महापुराणादि के कर्ता जिनसेन के गरु वीरसेन और दादा वज्रसरि - ये देवनन्दी या पूज्यपाद के शिष्य द्राविड़ संघ के आर्यनन्दी थे। पन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है। इसलिए इस संस्थापक जान पड़ते हैं। हरिवंशपुराणकार जिनसेन प्रथम ने देश के मनिसंघ का नाम पन्नाट संघ था। जिनसेन का जन्मस्थान, इनके विचारों को प्रवक्ताओं या गणधर देवों के समान प्रमाणभूत माता-पिता तथा प्रारंभिक जीवन का कछ भी उल्लेख उपलब्ध बतलाया है और उनके किसी ऐसे ग्रन्थ की ओर संकेत किया है, नहीं है। जिनसेन बहश्रत विद्वान थे। हरिवंशपराण पराण तो है ही. जिसमें बंध और मोक्ष तथा उनके हेतुओं का विवेचन किया साथ ही इसमें जैन वाङमय के विविध विषयों का अच्छा निरूपण गया है। दर्शनसार के उल्लेखानुसार ये छठी शती के प्रारंभ के किया गया है। इसलिए यह जैन साहित्यका अनपम ग्रंथ है । विद्वान् ठहरते हैं ४६।
श्रीपाल - ये वीरसेन स्वामी के शिष्य और जिनसेन के महासेन - इन्हें जिनसेन प्रथम ने सुलोचनाकथा का कर्ता कहा है। सधर्मा समकालीन विद्वान् हैं। जिनसेन ने जयधवला को इनके शान्त - इनका पूरा नाम शान्तिषेण जान पड़ता है। इनकी द्वारा सम्पादित बतलाया है। इनका समय विक्रम की ९वीं शती है। उत्प्रेक्षा अलंकार से युक्त वक्रोक्तियों की प्रशंसा की गई है। जयसेन - ये उग्रतपस्वी प्रशांतमूर्ति, शास्त्रज्ञ और पण्डितजनों जिनसेन प्रथम ने अपनी गुरुपरंपरा का वर्णन करते हुए जयसेन में अग्रणी थे। हरिवंशपराण के कर्ता जिनसेन ने अमितसेन के के पूर्व एक शान्तिषेण नामक आचार्य का नामोल्लेख किया है। गरु जयसेन का उल्लेख किया है। इनका समय विक्रम की बहुत कुछ संभव है कि यह शान्त वही शन्तिषेण हों। आठवीं शती है। जयसेन के नाम से एक निमित्तज्ञान संबंधी कुमारसेनगुरु - चंद्रोदय ग्रन्थ के रचयिता प्रभाचंद्र के आप ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में लिखा मिलता है, पर यह निश्चयपूर्वक गरु थे। आपका निर्मल सयश समदान्त विचरण करता था। नहीं कहा जा सकता कि आदिपुराणोल्लिखित जयसेन से वह इनका समय निश्चित नहीं है। चामुण्डरायपुराण के पद्य सं. १५ में आ
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