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________________ - यतीन्दसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - में ख्यात आचार्य विमलसूरि यापनीय परंपरा के प्रसिद्ध आचार्य अनन्तर धरणीपुत्र सुधर्मा को प्राप्त हुआ, अनन्तर प्रभव को थे। पउमचरिय के उल्लेखानुसार पउमचरिय की रचना प्रथम प्राप्त हुआ, प्रभव के अनन्तर कीर्तिधर आचार्यों को प्राप्त हुआ। शताब्दी ई. में हुई थी। डा. हर्मन जैकोबी पउमचरिय को तृतीय कीर्तिधर आचार्य के अनन्तर अनुत्तरवाग्मी आचार्य को प्राप्त शताब्दी ईसवी से पहले का नहीं मानते। हुआ तथा अनुत्तरवाग्मी आचार्य का लिखा हुआ प्राप्त कर यह विमलसूरि विजय के शिष्य थे। विजय नाइल कुलवंश के रविषेण का प्रयत्न प्रकट हुआ है ३६ | ग्रंथ के अंतिम पर्व में इसी गौरव थे। वे राह के शिष्य थे। पष्पिका से सचित होता है कि प्रकार का उल्लेख मिलता है ३६। तदनुसार समस्त संस्तर के पूर्व में वर्णित नारायण और बलदेव के चरित को सुनने के बाद द्वारा नमस्त द्वारा नमस्कृत भी वर्द्धमान जिनेन्द्र ने पद्ममुनि का जो चरित विमलसरि ने राघवचरित लिखा। पष्पिका में विमलचरिय को कहा था, वही इंद्रभूति (गौतमगणधर) ने सुधर्मा और जम्बस्वामी राहु का प्ररिय लिखा गया है। राहु नाइल वंश के यथार्थ सर्य के लिए कहा। वही जम्बूस्वामी के प्रशिष्य उत्तरवाग्मी आचार्य भाभी के द्वारा प्रकट हुआ। ये उत्तरवाग्मी कौन थे? इनके विषय में सूची में विमलसूरि का नाम नहीं हैं। श्वेताम्बर-परंपरा कहती है अभी तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई। इनके द्वारा लिखित कि महावीर निर्वाण के बाद एक हजार वर्ष तक पूर्वधर होते रहे। रामकथा भी आज उपलब्ध नहीं है। रविषण दिगंबर परंपरा के विमलसूरि के कुछ विश्वास दिगंबर परंपरासम्मत हैं, तो कुछ श्वेताम्बर अनुयायी थे। इन्होंने पद्मचरित की रचना ७३४ विक्रम (६६७ ई.) सम्मत। इस आधार पर विद्वानों ने उन्हें यापनीय परंपरा का आचार्य में पूर्ण की। जैन परंपरा में इक्ष्वाकुवंशी अयोध्याधिपति दाशरथि माना है। वेलगाँव के दोडवस्ती अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि व रामचन्द्र का अपरनाम पद्म विशेष प्रसिद्ध रहा है। अतएव पद्मचरित रामचन्द्र का अपरनाम' यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा दिगंबरों द्वारा पूजी जाती थी। अतः का आशय रामचरित, रामकथा या रामायण से है। यह माना जा सकता है कि यापनीय संघ के आचार्य दिगंबरों में जटासिहनन्दी- जटाचार्य के नाम से भी इनका उल्लेख मिलता प्रतिष्ठित थे। विमलसूरि का हरिवंसचरिय वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। ये तपस्वी और कवि थे३९। इनका समाधिमरण कोप्पण में है। पउमचरिय महाकाव्य में जैनदृष्टि से रामकथा वर्णित है। हुआ था। कोप्पण के समीप 'पल्लवकीगुण्डु' नाम की पहाड़ी रविषेण - अठारह हजार अनष्टप श्लोकप्रमाण पद्मचरित पर इनके चरणचिह्न अङ्कित हैं और नीचे दो पंक्तियों का परानी के कर्ता आचार्य रविषेण ने किसी संघ, गण, गच्छ का उल्लेख कन्नड़ भाषा का एक अभिलेख उत्कीर्ण है। इनका समय विक्रम नहीं किया है और न स्थानादि की चर्चा की है। अपनी गुरुपरंपरा संवत् की ७वीं शती है। इनकी एक रचना 'वरांगचरित' नामक के विषय में इन्होंने स्वयं लिखा है कि इंद्र गरु के शिष्य दिवाकर उपलब्ध है। यति थे, उनके शिष्य अर्हद यति थे, उनके शिष्य लक्ष्मण सेन काणभिक्ष- आचार्य जिनसेन ने काणभिक्ष का कथाग्रंथ रचयिता मुनि थे और उनका शिष्य मैं रविषेण हूँ२३। पं. नाथूराम प्रेमी ने के रूप में उल्लेख किया है। अतएव स्पष्ट है कि इनका कोई रविषेण के सेनान्त नाम से अनुमान लगाया है कि ये शायद सेन प्रथमानुयोग संबंधी ग्रंथ रहा है। जिनसेन द्वारा उल्लिखित होने संघ के हों और इनकी गुरुपरंपरा के पूरे नाम इंद्रसेन, दिवारकरसेन, के कारण इनका समय विक्रम संवत् की नवीं शती के पूर्व हैं । अर्हत्सेन और लक्ष्मणसेन हों । इनके निवासस्थान, माता कलंक- भट्ट अकलंक प्राचीन भारत के अद्भुत विद्वान पिता आदि के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। तथा लोकोत्तर विवेचक ग्रंथकार एवं जैन वाङ्मयरूपी नक्षत्रलोक पद्मचरित की रचना के विषय में रविषेण ने लिखा है- के सबसे अधिक प्रकाशमान तारे हैं। अकलंक ने न्यायप्रमाणशास्त्र जिनसूर्य श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष के बाद एक हजार दो सौ का जैन-परंपरा में जो प्राथमिक निर्माण किया, जो परिभाषाएँ, तीन वर्ष छह माह बीत जाने पर श्री पद्ममुनि(राम) का यह जो लक्षण व परीक्षण किया, जो प्रमाण, प्रमेय आदि का वर्गीकरण चरित लिखा गया है ३५ । पद्मचरित की कथावस्तु के आधार के किया और परार्थानुमान तथा वाद, कथा आदि परमत-प्रसिद्ध विषय में रविषेण ने लिखा है कि श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र के द्वारा वस्तुओं के संबंध में जो जैन-प्रणाली स्थिर की, अन्य परम्पराओं कहा हुआ यह अर्थ इंद्रभूति नामक गणधर को प्राप्त हुआ, में प्रसिद्ध तर्कशास्त्र के अनेक पदार्थों का जैनदृष्टि से जैन-परंपरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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