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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - चतुर्दश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु ही हैं। शेष दस नियुक्तियों, उवसग्गहर गई है।६२ गोविन्दनियुक्ति के रचयिता वही आर्यगोविन्द होने चाहिए एवं भद्रबाहु संहिता के रचयिता अन्य कोई भद्रबाहु होने चाहिए और जिनका उल्लेख नन्दीसूत्र में अनुयोगद्वार के ज्ञाता के रूप में किया सम्भवत: ये अन्य कोई नहीं, अपितु वाराहसंहिता के रचयिता वराहमिहिर गया है। स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कंदिल की चौथी पीढ़ी के भाई, मंत्रविद्या के पारगामी नैमित्तिक भद्रबाहु ही होने चाहिए।५५ में हैं।६३ अत: इनका काल विक्रम की पाँचवीं सदी निश्चित होता है। मुनिश्री पुण्यविजय जी ने नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु अत: मुनि श्रीपुण्यविजय जी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नन्दीसूत्र ही थे, यह कल्पना निम्न तर्कों के आधार पर की है एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति का जो उल्लेख है वह आर्य गोविन्द की १. आवश्यकनियुक्ति की गाथा १२५२ से १२७० तक में गंधर्व नियुक्ति को लक्ष्य में रखकर किया गया है। इस प्रकार मुनि जी दसों नागदत्त का कथानक आया है। इसमें नागदत्त के द्वारा सर्प के विष नियुक्तियों के रचयिता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को ही स्वीकार उतारने की क्रिया का वर्णन है।५७ उवसग्गहर (उपसर्गहर) में भी सर्प करते हैं और नन्दीसूत्र अथवा पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्ति का उल्लेख के विष उतारने की चर्चा है। अत: दोनों के कर्ता एक ही हैं और है उसे वे गोविन्द-नियुक्ति का मानते हैं। वे मन्त्र-तन्त्र में आस्था रखते थे। हम मुनि श्रीपुण्यविजय जी की इस बात से पूर्णत: सहमत नहीं २. पुन: नैमित्तिक भद्रबाहु ही नियुक्तियों के कर्ता होने चाहिए हो सकते हैं, क्योंकि उपर्युक्त दस नियुक्तियों की रचना से पूर्व चाहे इसका एक आधार यह भी है कि उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा गाथा में सूर्यप्रज्ञप्ति आर्यगोविन्द की नियुक्ति अस्तित्व में हो, किन्तु नन्दीसूत्र एवं पाक्षिक पर नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा की थी।५८ ऐसा साहस कोई ज्योतिष सूत्र में नियुक्ति सम्बन्धी जो उल्लेख हैं, वे आचारांग आदि आगमका विद्वान् ही कर सकता था। इसके अतिरिक्त आचारांगनियुक्ति में ग्रन्थों की नियुक्ति के सम्बन्ध में हैं, जबकि गोविन्दनियुक्ति किसी आगमतो स्पष्ट रूप से निमित्त विद्या का निर्देश भी हुआ है।५९ अत: मुनिश्री ग्रन्थ पर नियुक्ति नहीं है। उसके सम्बन्ध में निशीथचूर्णि आदि में जो पुण्यविजय जी नियुक्ति के कर्ता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार उल्लेख हैं वे सभी उसे दर्शनप्रभावक ग्रन्थ और एकेन्द्रिय में जीव करते हैं। की सिद्धि करने वाला ग्रन्थ बतलाते हैं।६४ अत: उनकी यह मान्यता यदि हम नियुक्तिकार के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति के जो उल्लेख हैं, वे करते हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ विक्रम की छठी गोविन्दनियुक्ति के सन्दर्भ में हैं, समुचित नहीं है। वस्तुत: नन्दीसूत्र सदी की रचनाएँ हैं, क्योंकि वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ के अन्त में एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख हैं वे आगम-ग्रन्थों की शक संवत् ४२७ अर्थात् विक्रम संवत् ५६६ का उल्लेख किया है।६० नियुक्तियों के हैं। अत: यह मानना होगा कि नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र नैमित्तिक भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, अत: वे उनके समकालीन की रचना के पूर्व अर्थात् पाँचवी शती के पूर्व आगमों पर नियुक्ति हैं। ऐसी स्थिति में यही मानना होगा कि नियुक्तियों का रचनाकाल लिखी जा चुकी थी। भी विक्रम की छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। २. दूसरे, इन दस नियुक्तियों में और भी ऐसे तथ्य हैं जिनसे यदि हम उपर्युक्त आधारों पर नियुक्तियों को विक्रम की छठी इन्हें वराहमिहिर के भाई एवं नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम संवत् ५६६) सदी में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु की कृति मानते हैं, तो भी हमारे सामने की रचना मानने में शंका होती है। आवश्यकनियुक्ति की सामायिक कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं नियुक्ति में जो निह्नवों के उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्तिकाल सम्बन्धी गाथायें १. सर्वप्रथम तो यह कि नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्तियों हैं एवं उत्तराध्ययननियुक्ति के तीसरे अध्ययन की नियुक्ति में जो शिवभूति के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त है। इसका प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययनचूर्णि, "संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जा संगहणीओ" । जो कि इस नियुक्ति पर एक प्रामाणिक रचना है, में १६७ गाथा तक - (नन्दीसूत्र, सूत्र सं. ४६) की ही चूर्णि दी गयी है। निह्नवों के सन्दर्भ में अन्तिम चूर्णि 'जेठ्ठा "स सत्ते सत्ये सगंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए" सुदंसण' नामक १६७ वी गाथा की है। उसके आगे निह्नवों के वक्तव्य - (पाक्षिकसूत्र, पृ. ८०) को सामायिकनियुक्ति (आवश्यकनियुक्ति) के आधार पर जान लेना इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ विक्रम की छठी सदी के चाहिए, ऐसा निर्देश है।६५ ज्ञातव्य है कि सामायिकनियुक्ति में बोटिकों पूर्व निर्मित हो चुके थे। यदि नियुक्तियाँ छठी सदी उत्तरार्द्ध की रचना का कोई उल्लेख नहीं है। हम यह भी बता चुके हैं कि उस नियुक्ति हैं तो फिर विक्रम की पाँचवीं शती के उत्तरार्द्ध या छठी शती के पूर्वार्द्ध में जो बोटिक-मत के उत्पत्तिकाल एवं स्थल का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त के ग्रन्थों में छठी सदी के उत्तरार्द्ध में रचित नियुक्तियों का उल्लेख है एवं वे भाष्य-गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनचूर्णि में एक संकेत यह भी कैसे संभव है? इस सम्बन्ध में मुनिश्री पुण्यविजय जी ने तर्क दिया मिलता है कि उसमें निह्नवों की कालसूचक गाथाओं को नियुक्तिगाथाएँ है कि नन्दीसूत्र में जो नियुक्तियों का उल्लेख है, वह गोविन्दनियुक्ति न कहकर आख्यानक संग्रहणी की गाथा कहा गया है।६६ इससे मेरे आदि को ध्यान में रखकर किया गया होगा।६१ यह सत्य है कि उस कथन की पुष्टि होती है कि आवश्यकनियुक्ति में जो निहवों के गोविन्दनियुक्ति एक प्राचीन रचना है क्योंकि निशीथचूर्णि में गोविन्दनियुक्ति उत्पत्तिनगर एवं उत्पत्तिकाल की सूचक गाथाएँ हैं वे मूल में नियुक्ति के उल्लेख के साथ-साथ गोविन्दनियुक्ति की उत्पत्ति की कथा भी दी की गाथाएँ नहीं हैं, अपितु संग्रहणी अथवा भाष्य से उसमें प्रक्षिप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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