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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
के साथ भी है और वह परलोक के प्रत्यय से इन्कार नहीं करती। भगवान् बुद्ध ने भी अजातशत्रु को यही बताया था कि मेरे धर्म की साधना का केन्द्र पारलौकिक जीवन नहीं, वरन् यही जीवन है।
मानवतावाद सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा दमन उचित नहीं मानता वरन् उसका संयमन आवश्यक मानता है। वह संयम का समर्थक है, दमन का नहीं उसके अनुसार सच्चा नैतिक जीवन इच्छाओं के दमन में नहीं वरन् उनके संयमन में है ।
तुलनात्मक दृष्टि से यदि हम इस पर विचार करें तो यह पाते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शन भी दमन के प्रत्यय को स्वीकार नहीं करते हैं। उनमें भी इच्छाओं का दमन अनुचित माना गया है। जैन दर्शन में क्षायिक एवं औपशमिक साधना की दो श्रेणियाँ मानी गयी हैं। इनमें भी केवल क्षायिक श्रेणी का साधक ही आत्मपूर्णता को प्राप्त कर सकता है; उपशम श्रेणी का साधक तो साधना की ऊँचाई पर पहुंचकर भी पतित हो जाता है। इस प्रकार वह भी दमन को अस्वीकार करता है और केवल संयम को स्थान देता है। इस अर्थ में वह मानववादी विचारणा के साथ है।
मानवतावाद कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज पर उसके परिणाम के आधार पर करता है लेमान्ट के अनुसार कर्म-प्रेरक और कर्म में विशेष अन्तर नहीं है। कोई भी क्रिया बिना प्रेरणा के नहीं होती है और जहाँ प्रेरणा होती है, वहाँ कर्म भी होता है । तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह पाते हैं कि बौद्ध दर्शन और गीता स्पष्ट रूप से कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण कर्मप्रेरक के आधार पर करते हैं, कर्म-परिणाम के आधार पर नहीं और इस आधार पर वे मानवतावाद से कोई साम्य नहीं रखते। जहाँ तक जैन दर्शन का प्रश्न है, वह व्यवहार दृष्टि से कर्म- परिणाम को और निक्षय दृष्टि से कर्म-प्रेरक को औचित्य अनौचित्य के निर्णय का आधार बनाता है। इस प्रकार उसकी मानवतावाद से इस सम्बन्ध में आंशिक समानता है।
मानवतावाद मनुष्य को ही समग्र मूल्यों का मानदण्ड स्वीकार करता है। इस प्रकार वह मानवीय जीवन को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न को देखें तो हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि भारतीय परम्परा भी मानवीय जीवन के महत्त्व को स्वीकार करती है। जैन आगमों में मानव जीवन को दुर्लभ बताया गया है। आचार्य अमितगति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जीवन में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है 'धम्मपद' में भगवान् बुद्ध ने भी मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया है । 'महाभारत' में व्यास ने भी यही कहा है कि यदि कोई रहस्यमय बात है तो वह यह है कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कोई नहीं है। तुलसीदासजी ने इसी तथ्य को यह कहकर प्रकट किया है कि- 'बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रन्यन्हिं गावा'। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय चिन्तन में भी मनुष्य जीवन के सर्वोच्च मूल्य को स्वीकार किया गया है यहाँ हम पाते हैं कि मानवतावादी विचार परम्परा की जैन दर्शन से तथा सामान्य रूप से भारतीय दर्शन से निकटता है। समकालीन
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मानवतावादी विचारणा में प्राथमिक मानवीय गुण के प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन विचारधाराएँ प्रचलित है। जैन आचार-दर्शन के साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए हम इन तीनों पर अलग-अलग विचार करेंगे।
आत्मचेतनावादी दृष्टिकोण और जैनदर्शन
मानवतावादी विचारकों में आत्मचेतनता या आत्मजागृति को ही नैतिकता का आधार और प्राथमिक मानवीय गुण मानने वाले विचारकों में वारनरफिटे प्रमुख हैं। वारनरफिटे नैतिकता को आत्मचेतनता का सहगामी मानते हैं उनकी दृष्टि में नैतिकता का परिभाषक उस समय सामाजिक प्रक्रिया में नहीं है, जिसमें मनुष्य जीवन जीता है, वरन् आत्मचेतना की उस मानवीय प्रक्रिया में है, जो व्यक्ति के जीवन में रही हुई है। वस्तुतः नैतिकता आत्मचेतन जीवन जीने में है उनका कथन है कि जीवन के समग्र मूल्य जीवन की चेतना में निहित है। यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो जीवन के किन्ही भी मूल्यों की अवधारणा कर सकता है। चेतना के नियंत्रण में जो जीवन है, वही सच्चा जीवन है। नैतिक होने का अर्थ यह जानना है कि हम क्या कर रहे हैं? जागृत चेतना नैतिकता है और प्रसुप्त चेतना अनैतिकता है। शुभ एवं उचित कार्य यह नहीं, जिसमें आत्मविस्मृति होती है। वरन् वह है जिसमें आत्मचेतना होती है।"
नैतिकता का यह आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैन आचार दर्शन के अति निकट है। वारनरफिटे की नैतिक दर्शन की यह मान्यता अति स्पष्ट रूप में जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में उपलब्ध है। फिटे जिसे आत्मचेतना कहते हैं, उसे जैन दर्शन में अप्रमत्तता या आत्मजागृति कहा गया है। जैन दर्शन के अनुसार प्रमाद आत्मविस्मृति की अवस्था है। जैन दर्शन में प्रमाद को अनैतिकता का प्रमुख कारण माना गया है। जो भी क्रियाएँ प्रमाद के कारण होती हैं या प्रमाद की अवस्था में की जाती हैं वे सभी अनैतिक मानी गयी हैं। 'आचारांग' में महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्रसुप्त चेतना वाला है। वह अमुनि (अनैतिक) है और जो जाग्रत चेतना वाला है वह मुनि (नैतिक) है। 'सूत्रकृतांग' में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहकर यही बताया गया है कि जो क्रियाएं आत्मविस्मृति लाती हैं, वे बन्धनकारक हैं और इसलिए अनैतिक भी है।" इसके विपरीत जो क्रियाएँ अप्रमत्त चेतना की अवस्था में सम्पन्न होती हैं, वे अबन्धकारक होती हैं और इस रूप में पूर्णतया विशुद्ध और नैतिक होती हैं। इस प्रकार हम देखते है कि वारनर फिटे का आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैन दर्शन के अति निकट है।
न केवल जैनदर्शन में वरन् श्रद्धदर्शन में भी आत्मचेतनता को नैतिकता का प्रमुख आधार माना गया है। 'धम्मपद' में बुद्ध स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अप्रमाद अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का । ६ बौद्धदर्शन में अष्टांग साधना मार्ग में सम्यक् स्मृति भी इसी बात को स्पष्ट करती है कि आत्मस्मृति या जागृत चेतना ही नैतिकता का आधार है, जबकि आत्मविस्मृति या प्रसुप्त चेतना अनैतिकता का आधार है। [ ८९
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