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________________ -- चतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार ३. एषणा समिति - आहार, वस्त्र, शय्या आदि की पूर्ति के लिए जीवन व्यतीत करते हुए यदि कोई संकट उपस्थित हो जाता है, उत्तेजित करने वाली वस्तुओं के स्थान पर सात्विक भोजन, वस्त्र तो उसे सहन करना पड़ता है। परीषहों की संख्या बाईस बतायी एवं पात्र ग्रहण करना। गई है-६५ ४. आदान समिति - रोजमर्रा की आवश्यकताओं की वस्तुओं १. क्षुधा परीषह २. तृषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक, ६. के लेन-देन, उनके रख-रखाव आदि में सावधानी रखना। अचेल, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषधा, ११. शय्या, नारसो १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, प्राणों के घातक विचार भी हो सकते हैं। जिन्हें मन से हटाना १७. तृण, १८. मल, १९.सत्कार, २०. प्रज्ञा २१. अज्ञान तथा साधु के लिए आवश्यक है। २२. दर्शन परीषह। बारह अनुप्रेक्षाएँ - अनुप्रेक्षा का अर्थ होता है गहन इन परीषहों को जीतना साधक के लिए आवश्यक है. चिन्तन करना। आत्मा द्वारा विशुद्ध चिन्तन होने के कारण इनमें क्योंकि-परीषह विजय के बिना चित की चंचलता समाप्त नहीं सांसारिक वासना-विकारों का कोई स्थान नहीं रहता है, फलतः होगी, मन एकाग्र नहीं हो पायेगा, फलत: न सम्यक् ध्यान होगा और न कर्मों का क्षय ही हो पायेगा। साधक विकास करता हुआ मोक्षाधिकारी होने में समर्थ होता है। जब आत्मा में शुभ विचारों का उदय होता है, तब अशुभ विचारों इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन वाङ्मय में श्रमण-जीवन का आना बंद हो जाता है। राग-द्वेषादि भावों पर विजय प्राप्त की आचारसंहिता का मूलभूत आधार पंच महाव्रत रहा है। श्रमण करने के लिए ही अनुप्रेक्षाओं का विधान किया गया है, जिसके चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर । पंच महाव्रतों के पालन में किसी अंतर्गत जीवों को विरक्त कराने के लिए संसार की अनित्यता प्रकार की विप्रतिपत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती है। यद्यपि महाव्रतों का विभिन्न प्रकार से विचार करने पर बल दिया गया है। अनुप्रेक्षाओं की व्याख्या और उसकी चर्या-पद्धति में विरूपताएँ परिलक्षित को वैराग्य की जननी भी कहा जाता है।६२ अनुप्रेक्षाएँ बारह हैं। होती हैं किन्तु उनका मौलिक आधार एक ही है। इसी प्रकार इन्हें भावना के नाम से भी जाना जाता है। अनुप्रेक्षाएँ निम्न हैं -६३ श्रावक की आचारसंहिता का वर्णन मुख्यत: दो रूपों में प्राप्त १. अनित्यानुप्रेक्षा २. अशरणानुप्रेक्षा ३. संसारानुप्रेक्षा होता है जिनमें प्रथम प्रकार में ग्यारह प्रतिमाएँ तथा दूसरे प्रकार ४. एकत्वानुप्रेक्षा ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा में बारह व्रतों की चर्चा होती है। श्रावक-प्रतिमाओं के प्रयोग का क्रम वर्तमान में भी प्रचलित है। इनमें से कछ प्रतिमाएँ श्रावक ७. आस्रवानुपेक्षा ८. संवरानुप्रेक्षा ९. निर्जरानुपेक्षा १०. धर्मानुप्रेक्षा ११. लोकानुप्रेक्षा १२. बोधिदुर्लभानुपेक्षा। के लिए हर समय, तो कुछ सीमित समय के लिए और कुछ बार-बार पुनरावृत्त की जाती हैं। प्रतिमाधारी श्रावक का समाज इस प्रकार उपर्युक्त बारह अनुप्रेक्षाओं के पालन में साधक में विशेष स्थान होता है। संसार-संबंधी दुःख, सुख, पीड़ा, जन्म-मरण आदि का चिन्तनमनन करता हुआ अंतर्मुखी वृत्ति को प्राप्त करता है और उसकी सन्दर्भ रागद्वेषादि की भावना क्षीण होती है, वह आत्मशुद्धि की प्राप्ति योगशास्त्र १४१५ २. तत्त्वार्थवार्तिक १/१ करता है। ३. वही १/१ ४. योगप्रदीप ७९ परीषह - समभावपूर्वक सहन करना परीषह कहलाता ५. अध्यात्मकल्पद्रुम ९/१५ ६. योगशास्त्र १२/२ है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मार्ग से च्यत न होने और कर्मों के क्षयार्थ जो सहन करने योग्य हों, वे परीषह हैं।६४ ७. वही १२/४ ८. षोडशक ३/६ ९. वही ३/७-११ १०. योगबिन्दु ३७१ यद्यपि तपश्चर्या में भी कष्टों को सहन करना पड़ता है, लेकिन तपश्चर्या में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जबकि ११. जैन-आचार - डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ.८३ परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता है, बल्कि श्रमण १२. धर्मामृत (सागर) १/२० १३. चारित्रसार - पृ. २० darivarivarianitariedodowdroidrodrowdrivanirioria-[ ४५Haririramirsidadridiadriminaristianoraduatar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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