SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 674
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म ऋषभनाथ : श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियों के समन्यय-सेतु विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव भिखना पहाड़ी, पटना..... तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव मलतः वैदिक परम्परा के 'ऋषभ' या 'वृषभ' शब्द का भी ऋग्वेद में भरिश: उल्लेख प्रतिष्ठित प्रागैतिहासिक शलाकापुरुष हैं। वे इसी परम्परा से पाया जाता है, जिसका अर्थ बल-वीर्य से सम्पन्न देवता है। श्रमण-परम्परा में प्रस्थित हुए हैं। उनकी तीर्थयात्रा की पदचाप एक मन्त्र इस प्रकार है - ब्राह्मण-परम्परा से श्रमण-परम्परा तक समभाव से अनुगृजित यः सप्तरश्मिभिर्वृषभस्तविस्मान, है। जैन-परम्परा ऋषभदेव से ही अपने धर्म का उदभव मानती। अवासृजत् सर्त्तवे सिन्धून् । (२.१२.१२) है। वैदिक साहित्य के तहत ऋग्वेद में जिस ऋषभदेव का यहां. 'वृषभ' का अर्थ मेघ की शक्ति को रोकने वाला देवता है। उल्लेख मिलता है, वही जैनधर्म के ऋषभनाथ हैं। ऋषभदेव पुनः दूसरा मन्त्र है - ब्राह्मण-धर्म और श्रमण-धर्म के समन्वय-बिन्दु के रूप में त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति। (४.५८.३) लोकादृत तीर्थपुरुष हैं। यहाँ 'वृषभ' शब्द का अर्थ सुख बरसाने वाला है। ऋग्वेद प्राच्य वाङ्मय में 'आहत' और 'बार्हत' शब्द दो सांस्कृतिक के ही अंगभूत तैत्तिरीय आरण्यक में 'ऋषभ' शब्द का महा या धार्मिक परम्पराओं के लिए उपलब्ध होते हैं। 'आर्हत' अर्हत् बलशाली के अर्थ में स्पष्ट उल्लेख हआ है : 'ऋषभं वाजिनं के उपासक थे और 'बार्हत' वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानोंके आराधक वयं पर्णमासं यजामहे।' (३.७.५.१३) अर्थात महाबलशाली. थे। 'बहती' वेद का वाचक है। बृहती के उपासक ही 'बार्हत' हैं। वेगवान पूर्णमास की हम पूजा करते हैं। बार्हत वैदिक यज्ञकार्य को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। आर्हतों और बार्हतों अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में भी 'ऋषभ' शब्द का स्पष्ट अथवा श्रमण-परम्परा और ब्राह्मण-परम्परा के बीच किसी उल्लेख उपलब्ध होता है - 'वैश्वानरं विभ्रती भूमिरग्निमिन्द्र प्रकार की ऐतिहासिक विभाजन-रेखा खींचना निश्चित तौर पर । ऋषभा द्रविणे नो दधातु।' (१२.१.६) यहाँ विश्वम्भरा वसुमती सम्भव नहीं है। दोनों ही परम्पराएँ समानान्तर विकसित हैं। पृथ्वी को 'ऋषभा' कहा गया है। 'अर्हत्' शब्द के ही समानांतर 'अहं' और 'अर्हणा' शब्द इस प्रकार ऋग्वेद तथा अन्य वेदों में पूज्यतासूचक अर्ह ऋग्वेद में मिलते हैं, जो पूज्य और श्रेष्ठ के वाचक हैं। जैसे (अर्हत्) तथा 'ऋषभ' (बलशाली देवता) के उल्लेख से अनुमान नृचक्षसो अनिमिषन्तो 'अर्हणा' बृहददेवासो अमृतत्वैमानशः। औ र (ऋक्. 10.63.4) अंक हिन्दी के 1,2,3.....रखें से ही प्रारम्भ हो गई थी, जिसका पूर्णतम विकास महाभारत - यहाँ 'अर्हणा' शब्द पूजा या सम्मान का द्योतक है। शाब्दिक कालवा उपनिषद्का काल या उपनिषद् काल में परिलक्षित होता है। 'वृषभ' और 'ऋषभ' अर्थ है - पूज्य। इसी प्रकार ऋग्वेद का एक मन्त्रांश है - शब्द यद्यपि विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, तथापि उनका केन्द्रीय भाव बलशाली देवता ही है। कहीं उनका वर्णन बैल, साँड (वृषभो यदर्यो अर्हाद' द्युमद् विभाति क्रतुमद् जनेषु। न तिग्मश्रृङगोऽन्तप॒थेषु रोरुवत - ऋक्. १०.८६.१५, 'बृहन्तं (2.23.15) चिदृहते रन्धयानि वयद्वत्सो वृषभं शूशुवानः। तत्रैव १०.२८.९) यहाँ भी 'अर्ह शब्द योग्य और आदरणीय या पज्य अर्थ मेघ ('अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेति वृषभो का ही वाचक है। न रोरुवत् -' ऋक् १०.७५.३) और अग्नि के रूप में हुआ है, तो कई जगह कामनाओं की पूर्ति या कामनाओं की वर्षा करने imramramramorintramosiombrambirambirambirambiramo namoral et pastraminismo moramo vamseriens sentimoriam riservations Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy