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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म बनकर उनके पाञ्चयामिकतीर्थ में सम्मिलित हो गये। महावीर हुआ। वैशाली गणराज्य के अट्ठारह सदस्य-राजाओं में नौ मल्लि थे ने पार्श्वनाथ के अहिंसा, सत्य अस्तेय, अपरिग्रहमूलक चातुर्यामिक और नौ लिच्छवि। वे सभी महावीर-धर्म के उपासक थे। धर्म में ब्रह्मचर्य को जोड़कर पाञ्चयामिक धर्म का प्रवर्तन किया उस युग में शासक-सम्मत धर्म को अधिक मूल्य मिलता था। अपरिग्रह को स्वच्छन्द यौनाचार से जोड़कर उसकी व्याख्यान था। इसलिए राजाओं का धर्म के प्रति आकृष्ट होना स्वाभाविक करने वाले 'वक्रजड़' लोगों से समाज को बचाने के लिए था। जैन धर्म ने समाज को अपना अनगामी बनाने के यत्न के भगवान् ने ब्रह्मचर्य को व्रत के रूप में स्वीकार किया। साथ ही उसे व्रतनिष्ठ बनाने पर भी बल दिया। तत्कालीन जैन धर्म के संघीय प्रयोगों के तहत भगवान् महावीर ने सम्यक् श्रावक सत्य की आराधना के साथ ही सामाजिक दोषों से भी श्रद्धा पर बल दिया। उनकी मान्यता थी कि सम्यक् श्रद्धा से बचने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। भगवान् महावीर ने समाज सम्यक्-असम्यक् सभी प्रकार के तत्त्व सम्यक् हो जाते हैं। के नैतिक, चारित्रिक और मानसिक स्वरूप के उत्कर्ष की जो उन्होंने स्त्रियों के साध्वी होने और मोक्ष पाने के अधिकार की आचारसंहिता दी है, उसका ऐतिहासिक और शाश्वत महत्त्व है। घोषणा करके अपने विशिष्ट मनोबल का परिचय दिया था। भगवान महावीर ने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की। उनके शिष्यों में चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियाँ त्रिपटी पर अपने धर्म को विन्यस्त करके निश्चय ही समन्वयवादी थीं। साध्वियों का नेतृत्व महासती चंदनबाला को सौंपा गया था। या वर्ग-वर्णभेद से रहित समतावादी समाज की स्थापना पर दिगम्बर सम्प्रदाय वाले स्त्रियों को मोक्ष की अधिकारिणी नहीं बल दिया था। उन्होंने अहिंसा के द्वारा सामाजिक क्रांति, अपरिग्रह मानते। पुरुष-योनि में आने पर ही उनका मोक्ष पाना संभव है। के द्वारा आर्थिक क्रांति एवं अनेकान्त के द्वारा वैचारिक क्रांति भगवान महावीर धर्म और चारित्र के जीवित प्रतिरूप थे। का उद्घोष किया था। अवश्य ही ये उनके सामाजिक तथ्यान्वेषण उनके अनुत्तर संयम को देखकर मगध-सम्राट श्रेणिक (बिम्बिसार) के युगान्तरकारी परिणाम हैं। कोई भी आत्मसाधक युगपुरुष उनका उपासक बन गया। सम्राट अपने जीवन के पूर्वकाल में सामाजिक व्यवस्था के आधारभूत तथ्यों की उपेक्षा नहीं कर भगवान् बुद्ध का उपासक था। उसकी पट्टमहिषी चेलना भी सकता। महावीर ने पददलित लोगों को सामाजिक सम्मान देकर महावीर की उपासिका बन गयी। सम्राट ने रानी को बौद्ध और उनमें आत्मभिमान की भावना को उबुद्ध किया। उन्होंने हरिकेशी रानी ने सम्राट को जैन बनाने के प्रयत्न किये। पर दोनों अपने जैसे चाण्डाल को गले लगाया, तो स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष सिद्धान्त पर अविचल रहे। अन्त में सम्राट को झुकना पड़ा। वे प्रतिष्ठा की अधिकारिणी घोषित किया। जैन बन गये (उत्तराध्ययन-२०)। भगवान महावीर ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के वैशाली अट्ठारह देशों या जनपदों का समेकित गणराज्य लिए तत्कालीन जनभाषा प्राकृत का माध्यम स्वीकार किया। थी, जिसके प्रमुख महाराजा चेटक थे। वे भगवान् महावीर के यह उनकी जनतांत्रिक दृष्टि के विकास का प्रबल परिचायक पक्ष मामा थे। जैन-श्रावकों में उनका विशिष्ट स्थान था। वे बारह है। भगवान् महावीर का युग क्रियाकाण्डों का युग था। महाभारत व्रतों (पाँच अणुव्रत एकदेशीय अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य की विनाशलीला का प्रभाव अभी जनमानस पर बना हुआ था। और अपरिग्रहव्रत; तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) का अनुपालन जनता त्राण खोज रही थी। अनेक दार्शनिक उसे परमात्मा की करने वाले श्रावक थे। उनके सात कन्याएँ थी। वे जैनश्रावक के शरण में ले जा रहे थे। समर्पण या आत्मनिवेदन का सिद्धान्त सिवा किसी अन्य के साथ अपनी कन्याओं का विवाह नहीं बल पकड़ रहा था। श्रमण-परम्परा इसका विरोध कर रही थी। करते थे। राजा श्रेणिक ने चेलना के साथ कूटनीतिक ढंग से भगवान् पार्श्वनाथ के निर्वाण के बाद किसी शक्ति-शाली नेताविवाह किया था। चेटक के सभी जामाता प्रारंभ से ही जैन थे। पुरुष का अभाव बना रहा, इसलिए उसका स्वर जनजीवन का श्रेणिक भी बाद में जैन बन गया। ध्यानाकर्षण नहीं कर सका। क्रांतदर्शी शलाकापुरुष भगवान् अपने दौहित्र कणिक (अजातशत्र) के साथ चेटक का भीषण महावीर ने उस स्वर को पुनः तीव्रता प्रदान कर उसे ततोऽधिक यद्ध हआ था। संग्रामभूमि में भी चेटक अपने व्रतों का पालन करते जनसम्प्रेषणीय बनाया। इसलिए आज उनके सदियी सिद्धान्त थे। उनके समय वैशाली गणराज्य में जैनधर्म का प्रभत प्रचार राष्ट्रकल्याण की दृष्टि से अधिक प्रासंगिक हो गये हैं। tamansamanariramidddddrianarsidasar६३-diriduniramidnidadidasriramidaiaasantansard Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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