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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - कुछ प्रश्र इस प्रकार के भी हैं -
१. सामायिक बैठे-बैठे उच्चरना या खड़े होकर? पाकि २. सामायिक गुरुवन्दन पूर्वक लेना या गुरुवन्दन बिना भी? ३. कायोत्सगन्ति में श्रुतदेव, क्षेत्रदेव, भुवनदेव, का कायोत्सर्ग करना और स्तुति कहना या नहीं?
आप ने इन प्रश्नों तथा अन्य प्रश्रों का सटीक एवं सप्रमाण समाधान किया है। संदेह का तो स्थान ही नहीं है।
१३. स्त्रीशिक्षा-प्रदर्शन - पुस्तक के प्रारम्भ में प्रासंगिक बोध शीर्षकान्तर्गत, दया, दान, दम, दक्षता, दौलत जातां, दुःख भाँजे, दीनवचन, दुर्जन ऊपर, दीन-दु:खी पर का वर्णन करते हुए आप ने कहा कि इन नव दकारमय गुणों से परिशोभित स्त्री कुलदीपिका कहलाती है। आप ने आगे लिखा है - 'असल में जो महिला सुशील, शिक्षिता एवं सहनशीला होती है। वह स्व-पर को सुधारने और अपने घर को स्वर्ग सदृश बनाने की क्षमता रखती है, जिस जाति, कुल और घर में ऐसी गुणवती स्त्री नहीं होती, वह जाति कुल या घर संसार में नहीं के समान है।
इस पुस्तक में हरिगीत छंद के माध्यम से चार छंदों में आप ने विद्या का महत्त्व भी प्रतिपादित किया है। इसके पूर्व सद्गुणवती स्त्रियों के लक्षण भी बताए हैं, जो काव्यमय (दोहों में) हैं। पुस्तक में कुछ दृष्टांत भी दिए गए हैं साथ ही खराब स्त्रियों के चाल-चलन पर विचार करने के बाद स्त्रियों के उत्तमादि भेद भी बताए गये हैं। इस लघु पुस्तक में अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है, जो आज भी प्रासंगिक है। पुस्तक के अंत में पुस्तक में आए हुए सुभाषित दिए गए हैं। यह भी संकेत दिया गया है कि कौन-सा सुभाषित कौनसे पृष्ठ पर आया है। कुल ४३ सुभाषित बताए गए हैं।
१४. श्री साध्वीव्याख्यान-समीक्षा - यह एक निबंध है, जिसे पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करवाया गया। आंतरिक उद्गार में आप ने लिखा है - 'वर्तमानकाल में खरतरगच्छ आदि गच्छों में साध्वियों को सूत्राभ्यास करने एवं व्याख्यान देने का निषेध नहीं है। इससे उन गच्छों की साध्वियाँ अपनी बुद्धि के अनुसार व्याकरण, सूत्र और प्रकरण ग्रंथों का अभ्यास करती हैं और जनता में उपदेश प्रदान करके अपने अभ्यस्त ग्रन्थों का सदुपयोग भी करती हैं।'
मा 'तपागच्छ में अपनी सत्ता के पुजारी आचार्यों के कपोल-कल्पित प्रतिबंध के कारण साध्वियाँ न तो सूत्राभ्यास कर पाती हैं और न स्व-पर की प्रगति के लिए अपना कदम उठा सकती हैं।'
वस्तुतः साध्वियों पर लगे इस प्रतिबंध के सत्य को परखने के लिए ही यह निबंध लिखा गया था। विभिन्न प्रमाणों से आप ने यह स्पष्ट किया कि जैन शास्त्रों के अवलोकन और मनन से पता लगता है कि पाँच महाव्रत, अष्ट प्रवचन माता, छह काया का संरक्षण, ब्रह्मचर्य-पालन, विशुद्ध पिंडग्रहण, अप्रतिबद्ध विहार, स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाओं का जिस प्रकार साधुओं को परिपालन करना पड़ता है, उसी प्रकार साध्वियों को भी परिपालन करना पड़ता है। इस विषय में दोनों में बहुत कुछ समानता है।
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