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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास(१) छोटा पहाड़ (चंद्रगिरि)
में ९० चित्र फलक हैं (१२वीं सदी) जिनका संबंध चंद्रगुप्त
और भद्रबाहु के जीवन से है। कत्तले वसदि (१.११८ ई. में अपर नाम इंद्रगिरि, कटवप्र, कालवप्प, तीर्थगिरि, ऋषगिरि
निर्मित) में आदिनाथ की मूर्ति है। अब इस मंदिर में अंधेरा आदि। अनेक साधुओं का समाधिस्थल। ७वीं सदी तक घने जंगल से घिरी पहाड़ी पर ९-१०वीं सदी से उसका रूप परिवर्तित।
(कत्तले) नहीं है, प्रकाश की व्यवस्था है। प्रदक्षिणा पथ इसकी
विशेषता है। गंगराज सेनापति ने इसे बनवाया था। मज्जिगण आचार्य भद्रबाहु और उनके शिष्य प्रभाचंद्र (सम्राट चंद्रगुप्त
वसदि में १४वें तीर्थंकर अनन्तनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मौर्य) की तपोभूमि और समाधिस्थल। २७१ शिलालेख प्राप्त।
इसकी पश्चिम दिशा में शासन वसदि है। जिसका निर्माण १११८ उनमें प्राचीनतम वह शिलालेख (छठी सदी) जिसमें इन दोनों
ई. में होय्यसल नरेश विष्णुवर्धन के सेनापति गंगराज ने कराया। आचार्यों का उल्लेख। यहीं वह भी स्थल जहां से चामुण्डराय ने
शासन वसदि और चामुण्डराय वसदि के बीच एक-दो स्मारक विन्ध्यगिरि पर बाण छोड़कर गोमटेश मूर्ति के शीर्ष भाग को
हैं, जिन्हें गंगराज मंडप कहते हैं। उसके पश्चिम में चंद्रप्रभ वसदि प्रकट किया था।
है, जिसका निर्माण गंगनरेश शिवमार द्वितीय ने ८वीं शती में नगर की बायीं और बड़ी-बड़ी चट्टानों से भरा २४० सीढ़ियां किया। इसमें अम्बिका और ज्वालामालिनी की आकर्षक मर्तियाँ और ९३५ फुट की समानान्तर भूमि के बाद मुत्तालय स्मारकों हैं। इस वसदि के बायीं ओर सपार्श्वनाथ वसदि है, जिसमें का प्रारंभ। बीच में लगभग १६वीं सदी का तोरण। सुत्तालय के सप्तफणयुक्त सुपार्श्वनाथ की मूर्ति है। पूर्व प्राकृतिक भद्रबाहु गुहा जिसमें भद्रबाहु और चंद्रगुप्त के पद
चंद्रगिरि पर्वत पर सर्वाधिक संदर द्रविड शैली में निर्मित चिह्न ११वीं सदी में निर्मित। बाद में वह मंदिर में परिवर्तित।
चामुण्डराय वसदि है, जिसमें तीर्थंकर नेमिनाथ की ५ फीट की सुत्तालय के पास एक तालाब। सुत्तालय में १३ मंदिर, ७ मंडप,
मनोज्ञ प्रतिमा है। गर्भगृह के दोनों और अलंकृत यक्ष सर्वाहण २ स्तम्भ और एक विराट मूर्ति। दक्षिण प्रवेश द्वार पर गंगकला
और दक्षिणी कूष्मण्डिनी निर्मित है। चामुण्डराय ने इसका निर्माण का मनोहारी नमूना कूगे ब्रह्मदेव मानस्तम्भ। दायीं और शांतिनाथ
कराया जिसका अनुकरण होय्यसल नरेशों ने हेलिबिड आदि वसदि में ११वीं सदी में निर्मित शांतिनाथ की १३ फीट ऊंची
मंदिरों के निर्माण में किया। इसे चामुण्डराय के पुत्र जिनदेव ने मूर्ति। इसके उत्तर में लोहे के घेरे में खड़ी बाहुबली के भाई भरत
९९५ई. में बनवाया। यहां के एक अन्य लेख से पता चलता है की ९ फीट की विशालकाय मूर्ति। कलाकार अरिष्टनेमि का
कि बेलगोला के चेलोक्यरंजन नामक जैन मंदिर का निर्माण कदाचित् प्रारंभिक प्रयोग। इसके पूर्व युगल महानवमि मंडप (१२वीं सदी में होयसल राजा नरसिंह प्रथम द्वारा निर्मित)। दोनों
गंगराज के पुत्र एचन्ना ने ११३८ई. में कराया था। गंगाचारि इसका
कलाकार था। इस तरह यह वसदि कई चरणों में बनाई गई। वसदियों के बीच छठी सदी का प्राचीनतम शिलालेख जिसमें भद्रबाहु, चंद्रगुप्त, द्वादशवर्षीय अकाल आदि का वर्णन है।
इसी वसदि के समीप एडकट्टे वसदि है, जिसका निर्माण
गंगराज की पत्नी लक्ष्मी ने १११८ ई. में किया। इसके दायीं और द्राविड़ शैली में निर्मित पार्श्वनाथ वसदि। उसके गर्भगृह में
सबतिगंधवारण वसदि है। जिसे होयसल नरेश विष्णुवर्धन की १५ फीट ऊंची पार्श्वनाथ सप्तफण युक्त श्यामवर्ण की मनोज्ञ
सर्वाधिक प्रिय जैन पत्नी शान्तला देवी ने ११२३ ई. में निर्मित मूर्ति (११वीं सदी)। सामने मानस्तम्भ (१७५० ई.), दायीं ओर
किया। इसमें शांतिनाथ की पाँच फीट की मूर्ति और यक्ष पद्मावती की मूर्ति और आसपास यक्षमूर्ति, कूष्माण्डिनी देवी और घुड़सवार की मूर्ति। इस वसदि के उत्तर में चंद्रगुप्त वसदि
किम्बपुरुष तथा यक्षी महामानसी की मूर्तियां हैं। इसके पूर्व
तेरिन वसदि है, जिसे १११७ ई. में माचिकब्बे और शांतिकब्बे ने (९वीं सदी)। उसमें तीन कोठरियाँ जिसमें पार्श्वनाथ, पद्मावती
बनवाया। इसमें ४ फीट ऊंची बाहुबलिस्वामी की मूर्ति है, जिसे और कूष्माण्डिनी देवी की विशाल मूर्तियाँ १२वीं सदी की होयसल कलाकारी में निर्मित। बरामदे में गंग कलाकारी में निर्मित
कर्नाटक परंपरा ने तीर्थंकर के समान पूजना प्रारंभ किया। अंत धरणेन्द्र और सर्वाण्ह यक्ष की मूर्तियां। सामने सभा भवन में
में शांतीश्वर वसदि है, जिसे गंगराज बोम्मण के पुत्र एचिमय्य ने क्षेत्रपाल की मूर्ति। अलंकृत द्वार के दोनों ओर जालीदार पाषाण
बनवाया। सर्वाग्रह और अंबिका की भी मूर्तियां यहां है।
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