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________________ जैन-साधना में ध्यान भारतीय अध्यात्मवादी परम्परा में ध्यान-साधना का अस्तित्व साथ-साथ जैन और बौद्ध परम्पराओं में मिल जाते हैं। अति प्राचीनकाल से ही रहा है। यहाँ तक कि अति प्राचीन नगर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से खुदाई में, जो सीलें आदि उपलब्ध हुई हैं, जैन-धर्म और ध्यान उनमें भी ध्यानमुद्रा में योगियों के अंकन पाये जाते हैं। इस प्रकार श्रमण परम्परा की निर्ग्रन्थधारा, जो आज जैन-परम्परा के नाम ऐतिहासिक अध्ययन के जो भी प्राचीनतम स्रोत हमें उपलब्ध हैं, वे सभी से जानी जाती है, अपने अस्तित्व काल से ध्यान-साधना से जुड़ी हुई भारत में ध्यान की परम्परा के अति प्राचीनकाल से प्रचलित होने की है। प्राकृत-साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथों आचारांग उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित पुष्टि करते हैं उनसे यह भी सिद्ध होता है कि भारत में ध्यानमार्ग की (इसिभासियाई) में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर में जो स्थान . परम्परा प्राचीन है और उसे सदैव ही आदरपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। मस्तिष्क का है, साधना में वही स्थान ध्यान का है। उत्तराध्ययनसूत्र में श्रमण-जीवन की दिनचर्या का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि श्रमणधारा और ध्यान प्रत्येक श्रमणसाधक को दिन और रात्रि के दूसरे प्रहर में नियमित रूप से औपनिषदिक और उसकी सहवर्ती श्रमण-परम्पराओं में साधना ध्यान करना चाहिए। आज भी जैन-श्रमण को निद्रात्याग के पश्चात्, की दृष्टि से ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। औपनिषदिक ऋषिगण भिक्षाचर्या एवं पदयात्रा से लौटने पर गमनागमन एवं मलमत्र आदि के और श्रमण-साधक अपनी दैनिक जीवनचर्या में ध्यान-साधना को स्थान विसर्जन के पश्चात् तथा प्रात:कालीन और सायंकालीन प्रतिक्रमण करते देते रहे हैं - यह एक निर्विवाद तथ्य है। तान्त्रिक साधना में ध्यान को जो समय ध्यान करना होता है। उसके आचार और उपासना के साथ स्थान मिला है, वह मूलत: इसी श्रमणधारा की देन है। महावीर और बुद्ध कदम-कदम पर ध्यान की प्रक्रिया जुड़ी हुई है। के पूर्व भी अनेक ऐसे श्रमण साधक थे, जो ध्यान-साधना की विशिष्ट जैन-परम्परा में ध्यान का कितना महत्त्व है- इसका सबसे बड़ा विधियों के न केवल ज्ञाता थे, अपितु अपने सान्निध्य में अनेक साधकों प्रमाण तो यह है कि जैन-तीर्थंकरों की प्रतिमायें चाहे वे खड्गासन में हो को उन ध्यान-साधना की विधियों का अभ्यास भी करवाते थे। इन या पद्मासन में सदैव ही ध्यानमुद्रा में उपलब्ध होती हैं। आज तक कोई आचार्यों की ध्यान-साधना की अपनी-अपनी विशिष्ट विधियाँ थीं, ऐसे भी जिन-प्रतिमा ध्यान-मुद्रा के अतिरिक्त किसी भी अन्य मुद्रा में उपलब्ध संकेत भी मिलते हैं। बुद्ध अपने साधनाकाल में ऐसे ही एक ध्यानसाधक ही नहीं हुई है। यद्यपि तीर्थकर या जिन-प्रतिमाओं के अतिरिक्त बुद्ध की श्रमण आचार्य रामपुत्त के पास स्वयं ध्यान-साधना के अभ्यास के लिए भी कुछ प्रतिमायें ध्यानमुद्रा में उपलब्ध हुई हैं किन्तु बुद्ध की अधिकांश गये थे। रामपुत्त के संबंध में त्रिपिटक साहित्य में यह भी उल्लेख मिलता प्रतिमायें तो ध्यानेतर मुद्राओं- यथा अभयमुद्रा, वरदमुद्रा और उपदेशमुद्रा है कि स्वयं भगवान् बुद्ध ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् भी अपनी साधना की में ही मिलती हैं। इसी प्रकार शिव की कुछ प्रतिमायें भी ध्यानमुद्रा में उपलब्धियों को बताने हेतु उनसे मिलने के लिए उत्सुक थे, किन्तु तब मिलती हैं- किन्तु नृत्यमुद्रा आदि में भी शिव-प्रतिमायें विपुल परिमाण तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी।२ इन्ही रामपुत्त का उल्लेख जैन-आगम में उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार जहाँ अन्य परम्पराओं में अपने आराध्य साहित्य में भी आता है। प्राकृत आगमों में सूत्रकृतांग में उनके नाम के देवों की प्रतिमायें ध्यानेतर मुद्राओं में भी बनती रहीं, वहाँ तीर्थंकर या निर्देश के अतिरिक्त अन्तकृद्दशा ऋषिभाषित आदि में तो उनसे जिनप्रतिमायें मात्र ध्यानमुद्रा में भी बनती रहीं। जिनप्रतिमाओं के निर्माण संबंधित स्वतंत्र अध्याय भी रहे थे दुर्भाग्य से अन्तकृद्दशा का वह का दो सहस वर्ष का इतिहास इस बात का साक्षी है कि कभी भी कोई अध्याय तो आज लुप्त हो चुका है, किन्तु ऋषिभाषित में उनके भी जिन-प्रतिमा/तीर्थंकर-प्रतिमा ध्यान-मुद्रा के अतिरिक्त किसी अन्य उपदेशों का संकलन आज भी उपलब्ध है। मुद्रा में नहीं बनाई गयी। इससे जैन-परम्परा में ध्यान का क्या स्थान रहा बुद्ध और महावीर को ज्ञान का जो प्रकाश उपलब्ध हुआ वह है-यह सुस्पष्ट हो जाता है। जैनाचार्यों ने ध्यान को साधना का मस्तिष्क उनकी ध्यान-साधना का परिणाम ही था, इसमें आज किसी प्रकार का माना है। जिस प्रकार मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने पर मानव-जीवन का वैमत्य नहीं है। किन्तु हमारा यह दुर्भाग्य है कि प्राचीन साहित्य में भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है उसी प्रकार ध्यान के अभाव में जैन-साधना ध्यान-साधना की इन पद्धतियों के विस्तृत विवरण आज उपलब्ध नहीं का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। हैं, मात्र यत्र-तत्र विकीर्ण निर्देश ही हमें मिलते हैं। फिर भी जो सूचनायें उपलब्ध हैं, उनके आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि ध्यान-साधना की आवश्यकता औपनिषदिक ऋषिगण और श्रमण साधक अपने आध्यात्मिक विकास के मानव-मन स्वभावतः चंचल माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में लिए ध्यान-साधना की विभिन्न पद्धतियों का अनुसरण करते थे। उनकी मन को दुष्ट अश्व की संज्ञा दी गई है, जो कुमार्ग में भागता है।१० गीता ध्यान-साधना-पद्धतियों के कुछ अवशेष आज भी हमें योग-परम्परा के में मन को चंचल बताते हुए कहा गया है कि उसको निगृहीत करना वायु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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