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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन कहते हैं४३ - अप्रसिद्धोऽनपदेशः। हेतु के लक्षण के संबंध में कारण। पर्वत में धूम है अत: वह पक्षधर्मत्व से युक्त हैं। धर्म नहीं गौतम ने कहा है-४४--उदाहरणसाधात्साध्यसाधनं हेतः। तथा रहने पर जो हेत्वाभास होता है उसे असिद्धहे त्वाभास कहते हैं। वैधात। अर्थात् उदाहरण के साधर्म्य एवं वैधर्म्य के द्वारा साध्य सपनसत्व - हेत या लिङग के लिए सपक्ष में रहना भी को प्रमाणित करना हेतु है। इसके आधार पर हेतु को दो तरह के
उतना ही आवश्यक है जितना कि पक्ष में रहना। हेतु सभी सपक्षों प्रयोगों में देखा जाता है-साधर्म्य तथा वैधर्म्य।
में रहे अथवा किसी एक सपक्ष में, किन्तु उसका रहना जरूरी सिद्धसेन दिवाकर ने हेतु के लक्षण का निरूपण करते हुए है। पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने से जैसे महानस आदि। कहा है।५ -
विपक्षासत्व - हेतु का पक्ष एवं सपक्ष में रहना ही उसे 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्।' अन्यथानुपपन्नत्व सार्थक नहीं बनाता बल्कि विपक्ष में उसका अभाव होना चाहिए। अर्थात् साध्य के बिना उपपन्न न होना हेतु का लक्षण है। साध्य जहाँ-जहाँ नहीं हो वहाँ-वहाँ हेतु को भी नहीं रहना चाहिए।
विद्यानन्द ने भी हेतुसंबंधी न्यायदर्शन की मान्यता को खण्डित जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं है, वहाँ-वहाँ धूम नहीं है जैसे तालाब। करते हुए कहा है-अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं पंचभिः कृतम्।
अबाधितविषयत्व - बाधितविषय से समझना चाहिए नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं पंचभिः कृतम्।।
बाधित साध्य। हेतु का साध्य जब प्रत्यक्ष अथवा आगम से
बाधित होता है तब उसे बाधितविषय कहते हैं। अग्नि शीतल जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व न हो वहाँ पर पंचरूपता व्यर्थ है।
है कृतक होने से। यहाँ प्रत्यक्ष से अग्नि की शीतलता बाधित इस उक्ति से यह स्पष्ट होता है कि विद्यानंद ने भी अन्यथानुपपन्नत्व
है। अतः कृतक हेतु नहीं माना जा सकता। किन्तु जब कहते
। को ही हेतु का लक्षण माना है। इसी तरह अन्य जैनाचार्यों ने भी
हैं कि पर्वत अग्नियुक्त है, धुमयक्त होने से तो यह प्रत्यक्षादि हेत के संबंध में विचार किए हैं। किन्तु हेमचन्द्र ने हेतु को बहुत से बाधित नहीं होता। ही सरल ढंग से समझाया है। उनके अनुसार हेतु की परिभाषा इस प्रकार है--साधनत्वाभिव्यञ्जकाविभक्त्यन्तं साधनवचनं
असत्प्रतिपक्षत्व - हेतु का विरोधी जब विद्यमान रहता है, हेतुः -२/१२ वह साधन कथन जिसके अंत में साधनत्व को तब उसे सत्प्रतिपक्ष कहते हैं। सत्प्रतिपक्षता के कारण हेत सार्थक व्यक्त करने वाली विभक्ति लगी हो उसे हेतु कहते हैं। यहाँ नहाह
नहीं हो सकता। अत: उसे असत्प्रतिपक्ष होना चाहिए। जब कहते हैं समस्या आती है कि वैसी कौन-कौन सी विभक्तियाँ हैं? इसके ।
कि पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने से तो ऐसी कोई भी जगह उत्तर में वे पनः कहते हैं४८--साधनत्वाभिव्यञ्जिकाविभक्तिः नहीं होनी चाहिए जो धूमयुक्त तो हो पर अग्नियुक्त नहीं हो।५० पञ्चमी, तृतीया, वा तदन्तम् साधनस्य उक्तलक्षणस्य वचनम् बौद्धदर्शन - बौद्धाचार्य अर्चट ने न्याय द्वारा प्रतिपादित हेतुः। साधनत्व को व्यक्त करने वाली विभक्तियाँ पंचमी और हेतु के पांच रूपों में से प्रथम तीन को स्वीकार किया है तथा तृतीया होती है। इनके साथ समाप्त होने वाले साधन वाचक शेष दो को अनावश्यक बताया है। वचन हेतु होते हैं। हिन्दी में ऐसी अभिव्यक्ति क्योंकि, चूँकि
पक्षसत्व - जहां अग्नि का संदेह है, पक्ष में धूम का आदि शब्दों के सहयोग से होती है। उस पर्वत पर अग्नि है, अस्तित्व५१ क्योंकि वह धूमयुक्त है। साध्य के साथ जिसकी व्याप्ति नहीं।
सपक्षसत्व - अग्नि के अस्तित्व में धम का अस्तित्व। होती है, वह हेतु नहीं हो सकता है। हेतु का स्वरूप - न्याय दर्शन में हेतु को पाँच रूपों
विपक्ष-असत्व - अग्नि जहाँ नहीं है वहाँ धूम नहीं है। वाला माना गया है ४९ -- पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति शेष दो के संबंध में बौद्धमत जो कहता है उसे महेन्द्र अबाधितविषयत्व तथा असत्प्रतिपक्षत्व।
. कुमार जैन के शब्दों में हम अच्छी तरह समझ सकते हैं। पक्षधर्मत्व - हेतु के धर्म के जो पक्ष में रहता है उसे त्रैरूप्यवादी बौद्ध त्रैरूप्य को स्वीकार करके अबाधित पक्षधर्मत्व कहते हैं। पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने के विषयत्व को पक्ष के लक्षण से ही अनुगत कर लेते हैं, क्योंकि
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