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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' के अनुसार शरीर धर्म- घर जाकर भूल गया और मुनि रात भर वहीं खड़े रहे। प्रातः मुनि साधन का महत्त्वपूर्ण निमित्त है। संयम से शरीर नीरोग रहता है। को वहाँ खड़ा देखकर हलवाई मुनि के चरणों में गिर पड़ा। मुनि डाक्टरों का मत है कि अधिक खाने से और अधिक विषय- की संयम में दृढ़ता से कांधला जैनियों में प्रसिद्ध हो गया। भोग भोगने से अधिक लोग मरते हैं, बीमारी से कम मरते हैं। निर्ग्रन्थों की अपेक्षा से संयम के पाँच भेद हैं। जो मलगण कामभोग ही अनेक बीमारियों का घर है। प्रायः देखा जाता है और उत्तरगण में परिपर्ण न होने पर भी वीतराग-प्रणीत आगम कि परस्त्रीगामी और वेश्यागामी को जननेन्द्रिय संबंधी रोग लग।
से कभी अस्थिर नहीं होते, उन्हें पलाक संयमी कहते है। जो जाते हैं। शरीर अशक्त हो जाता है, जिससे वह रोगों का अवरोध ।
शरीर की विभूषा करे, सिद्धि यश कीर्ति चाहे, सुखाकांक्षी हो नहीं कर पाता।
और अतिचार दोषों से युक्त हो वह बकुश संयमी होता है। ब्रह्मचर्य-पालन के लिए सात्विक अल्प आहार आवश्यक इंद्रियों व मंद कषाय के वश में होकर जो उत्तरगुण में दोष है। भगवान् बुद्ध ने भी कहा है कि एक बार खाने वाला लगाये, विषयभोग में रुचि रखे वह कुशील संयमी, जिसके राग महात्मा, दो बार खाने वाला बुद्धिमान और दिन भर खाने वाला -द्वेष इतने मंद हों कि श्रेणी चढ़ते अन्तर्मुहूर्त में केवली होने पशु है।' ब्रह्मचारी का आहार कैसा होना चाहिये इस विषय में वाला हो, विषयों से सर्वथा मुक्त और पूर्ण जाग्रत हो वह निर्ग्रन्थ ओघनियुक्ति में उल्लेख है
संयमी और जोहियाहारी मियाहारी, अप्पाहारी य जे नरा।
जाणिए सव्वहि जीव जग जागा, न ते विज्जाभिगच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छंगा।।
सव्वहि विषय विलास विरागा। . जो हित मित और अल्प आहार करनेवाले हैं, उन्हें डाक्टर
जो सर्व जीवों की सर्व पर्यायों को जानते हों, जो सर्व के पास नहीं जाना पड़ता। संयमी शरीर से भी पुण्य कमाता विषय-विलास से मुक्त हो चुके हों, वे सर्वज्ञ स्नातक संयमी है और निर्जरा का भी उपार्जन करता है। तुलसीदासजी ने भी कहलाते हैं। कहा है
मार्ग आदि देखकर प्रवृत्ति करने को प्रेक्ष्य संयम कहते हैं। तुलसी काया खेत है, मनसा भया किसान।
अशुभ को रोककर शुभ में प्रवृत्ति करने को उपेक्ष्य संयम कहते पुण्य पाप दोउ बीज है, बुवै सो लुणे निदान।।
हैं। संयम में सहायक वस्त्र, पात्र आदि के अतिरिक्त जो अन्य यह शरीर खेत है और मन किसान है, इसमें ब्रह्मचर्य, सबका त्याग करे. उसे असहाय संयम कहते हैं। मार्ग आदि को समय या अब्रहम का जैसा पुण्य-पाप का बीज बोओगो वैसा सविधि पूज कर काम में ले उसे प्रमज्य संयम कहते हैं। ही फल मिलेगा। संयम-साधन की वस्तुओं कटासन, चारवला,
हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों अस्त्रवों माला आदि का संयम रखें और उन पर ममत्व न रखें इसे
का त्याग, पाँच इंद्रियों पर विजय, चार कषायों का त्याग और उपकरण-संयम कहते हैं।
तीनों योगों का संयम (मन, वचन काया का) यों संगम के कुल संयम-पालकों की दृष्टि से भी संयम के चार भेद हैं। मोम जैसा, लाख जैसा, लकड़ी जैसा और मिट्टी के गोले जैसा। उत्तम
निर्दोष संयम पालने के लिए कछुए का दृष्टान्त बहुत ही संयमी मिट्टी के गोले के समान संयम में दृढ़ रहता है। कांधला
उपयोगी है। उसे जब भी कुछ खतरा लगता है तब वह तुरन्त की एक घटना है। एक मुनि विहार करते हुए सूर्यास्त के समय
अपने सभी अंगों को संकुचित कर खोल में छिपा लेता है, वहाँ पहुँचे। एक हलवाई दुकान बंद करके जा रहा था। मुनि ने
खतरा टल जाने पर वापस बाहर निकाल लेता है। इसी तरह उसे छप्पर के नीचे रात में रहने के लिए पूछा। हलवाई ने कहा
साधक को भी जब-जब आवश्यक हो, तब-तब इंद्रियों और कि मैं घर से वापस आकर आज्ञा दूँगा। मुनि ने कहा- कोई बात
मन को गुप्ति रूपी खोल में गोपित कर लेना चाहिये। नहीं आप घर होकर आ जायें तब तक मैं यहीं खड़ा हूँ। हलवाई
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