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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार सिद्ध अरिहंत मन में रमाते चलें ॥ संयत इंद्रियाँ जीवन में सुखशांति और असंयत इंद्रियाँ अशांति का सृजन करती हैं। स्वामी शंकराचार्य ने तो इंद्रियों को चोर से बढ़कर कहा हैं। चोर जिस घर में रहता है, उसमें चोरी नहीं करता। किन्तु ये इंद्रियाँ तो आत्मा के आश्रित रहकर भी आत्मा को ही धोखा देती है और सुख के स्थान पर उसे दुःखों में ला पटकती हैं। अत: इंद्रियों को सदैव संयमित रखना चाहिये । मन का संयम बड़ा दुष्कर है, क्योंकि मन बड़ा चंचल है। दस चंचल इस प्रकार हैं मनो मधुकरो मेघो, मानिनी मदनो मरुत् । मा मदो मर्कटो मत्स्यो, मकारा दश चंचलाः ॥ योगी आनंदघनजी ने भी मन के विषय में कहा हैकुन्थु जिन । मनड़ो किम ही न बाजे । ज्यों-ज्यों जतन करीने राखुं, त्यों-त्यों अधिको भाजे ॥ रजनी बासर बसती उजड़, गयन पयाले जाय। साँप खायने मुखड़ो, थोथो, ए उखाणो न्याय ॥ मैं जाणु ए लिंग नपुसंक, सकल मरद ने ठेले । धीजी बातां समरथ के नर, एह ने कोई न ठेले । अर्थात हे ! कुन्थुनाथ प्रभो ! मन वश में नही होता है । जितना यत्न करता हूँ उतना ही अधिक भागता है यह रात-दिन बस्ती, उजाड़, आकाश, पाताल सर्वत्र जाता है । सर्प खाता है तो भी उसका मुँह खाली ही रहता है। वैसे ही यह मन है । मैं जानता हूँ कि मन नपुंसक है, फिर भी यह सभी पुरुषों को हराने वाला है। अन्य बातों में पुरुष समर्थ होते हैं, पर इसको कोई पराजित नहीं कर सकता। किसी तांत्रिक ने एक भूत को वश में कर लिया। वह भूत निरंतर काम चाहता था । यदि उसे काम न बताये तो उस तंत्रवादी पर आक्रमण कर सकता था। उसे जो भी काम बताया जाता वह क्षण भर में पूरा कर देता। तब उसने से भूत एक लंबा बाँस गाड़ने को कहा। फिर भूत से कहा कि जब तक दूसरी आज्ञा न दूँ तब तक इसी पर चढ़ो और उतरो । हमारा मन भी भूत है । उसे निरंतर कुछ काम चाहिये । उसे खाली रखोगो तो वह शैतान हो जायेगा। उसे सदैव ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय में लगाये रखें। Jain Education International चम्पानगर में एक जिनदास श्रावक था। वह घोड़े पर पौषधशाला जाता, प्रवचन के बाद घर आता, फिर दुकान जाता और शाम को घर लौट आता । घोड़ा इतना सध गया था कि पहली ए लगाते ही पौषधशाला, दूसरी में घर, तीसरी में दुकान और चौथी में वापस घर आ जाता। एक बार रात में चोर ने घोड़ा चुराने के लिए खूँटे से खोलकर उस पर सवार होकर एड़ लगाई तो वह पौषधशाला और दूसरी एड़ लगाई तो घर आ गया। फिर एड लगायी तो दुकान चला गया। चौथी एड़ में घर आ गया। चोर ने बहुत प्रयत्न किया पर घोड़ा तो पौषधशाला, दुकान और घर के ही चक्कर काटता रहा। आखिर घोड़े को छोड़कर चोर को भागना पड़ा। हमारा मन भी घोड़ा है। इसे इतना साध लें वह कुसंगति में जाये नहीं। मन को वश में करने से सब वश में हो जाते हैं। कहा भी गया है भाषा तो संयत भली, संयत भला शरीर । जो मन को वश में करे, वही संयमी वीर । । संयम के चार भेद हैं- मनसंयम, वचनसंयम, कायसंयम और उपकरणसंयम । मनसंयम बता चुके हैं। वचनसंयम का भी बड़ा महत्त्व है। जीभ एक है पर इसके काम तीन हैं। बोलना, खाना तथा स्पर्श करना। कहीं इसका दुरुपयोग न हो इसलिए इसे ३२ दाँतों के परकोटे में बंद करके रखा गया है फिर भी जीभ कहती है तुम बत्तीस अकेली मैं, तुम में आऊँ जाऊँ मैं । एक बात जो ऐसी कह दूँ, बत्तीसी तुड़वाऊँ मैं ।। तीन इंच की जीभ छह फुट के आदमी को मरवाने की ताकत रखती है । द्रौपदी के एक वाक्य ने महाभारत करवा दिया था। अतः वाणी पर संयम रखना अत्यावश्यक है। कहावत है'बोलना न सीखा तो सारा सीखा गया धूल में' कैसे बोलना चाहिये? इसका उत्तर ज्ञानियों ने यों दिया है 'सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।' अर्थात् सत्य बोले, प्रिय बोले, किन्तु जो सत्य होकर भी अप्रिय है, उसे न बोले । श्रावक को वाणी के आठ गुण ध्यान में रखने चाहये। अल्प आवश्यक मीठा चतुरा, मयनकारी, भाषा बोले । श्रावक सूत्र सिद्धांत न्याय से, सर्वहितैषी भाषा बोले ।। దూరమోదందనించనిd ? ?]రని GAGAG For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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