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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार - संयम का क्या फल है, इसके उत्तर में उत्तराध्ययनसूत्र में वह इस प्रकार कि पहला अहिंसा अणुव्रत लेने से निरपराध कहा गया है
त्रस जीवों की हिंसा का त्याग हो जाता है, जिससे मात्र स्थावर 'संजमेण अणण्हयत्तं जणयइ।'
जीवों की १० प्रतिशत हिंसा का पाप ही शेष रह जाता है। फिर
छठा दिशिव्रत ग्रहण करने से उससे भी आधी मात्र ५ प्रतिशत संयम से आस्रव के पाप का निवारण होता है। संयम का
क्रिया रह जाती है। सातवाँ भोगोपभोग व्रत ग्रहण करने से पाँच पालन कितना कठिन है। इस संबंध में भी उतराध्ययन में आया
की भी आधी २.५ प्रतिशत क्रिया रह जाती है। अन्त में आठवाँ
अनर्थदण्ड व्रत ग्रहण करने से उससे भी आधी १.२५ प्रतिशत जहा अग्गिसिहादित्ता, पाउं होइ सुदक्करा। क्रिया का पापास्रव शेष रह जाता है। यों आंशिक व्रतग्रहण से तहा दुक्कर करेउं जे, तारुण्णे समणत्तणं।। भी सहज में ही महापाप से निवृत्ति हो जाती है।
अर्थात जैसे प्रदीप्त अग्निशिखा को पीना कठिन है, वैसे श्रमणसत्र में कहा गया है कि बिना संयम के तप भी ही युवावस्था में संयम का पालन कठिन है। और भी कहा गया निरर्थक है
नाणं चरित्तहीनं, लिंगगहणं च दंसणविहीणं। बालुवा कवले चेव, णिरस्साए उ संजमे।
संजमहीणं च तवं, जो चरई निरत्थ य तस्स।। असि धारा गमण चेव, दुक्कर चरिउं तवो।।
अर्थात् बिना चारित्र के ज्ञान, बिना सम्यग्दर्शन के साधअर्थात्
वेष और बिना संयम के तप व्यर्थ है। संयम का महत्त्व तप से बालू रेत सम संयम होत है स्वादहीन।
अधिक है। तप और संयम में संयम ज्येष्ठ है। बिना संयम का समझो इस तलवार धार, चलना होत अति कठिन।। तप ताप होता है। शास्त्रकार कहते हैं कि तप वही श्रेष्ठ है, जो
संयम जीवन रूपी गाडी का ब्रेक है। जैसे लाखों रुपये के अहिंसा और संयम से युक्त हो। मूल्य वाली गाड़ी भी ब्रेक के बिना बैठने योग्य नहीं होती, वैसे संयम का फल दान से भी अधिक है। महादानी भी एक ही जीवन भी संयम के बिना बेकार है।
आंशिक संयमी के समकक्ष नहीं हो सकता। शास्त्रकार उत्तराध्ययन अंग्रेजी में भी कहावत है -
सूत्र में कहते हैं"If Money is lost nothing is lost, if health is lost some
जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवंदए। thing is lost, but if character is lost everything is lost.'
तस्सावि संजमो सेओ, अदित्तस्सऽकिंचण।। अर्थात् धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ
अर्थात्गया, किन्तु यदि चरित्र गया तो सब कुछ गया।
दस लाख गाय जो मास-मास, देता संयम से हो सूना। जो भी महापुरुष होते हैं वे सब संयमी और त्यागी होते हैं। दे दान नहीं कुछ भी पर है, संयम का मूल्य सदा दूना। उनका बाह्य जीवन कैसा भी क्यों न हो, पर वे अन्तरंग में दस लाख गायों का दान प्रतिमाह देने वाला भी एक संयमी होते हैं। संयम से आस्रव का समुद्र भी बूंद जितना कम संयमी साधु से, जो कुछ भी नहीं देता, श्रेष्ठ क्यों है? क्योंकि हो जाता है। त्याग-प्रत्याख्यान के बिना विश्व के समस्त जीव दानी तो कुछ जीवों का अभयदान कुछ समय के लिए ही दे
और अजीव पदार्थों की क्रिया के पाप-आस्रव से सभी अव्रती पाता है, वे भी कालान्तर में कसाई के पास पहुँच सकते हैं पर जीव निरन्तर भारी होते रहते हैं। जो सर्व संयमी (साधु) होते हैं। साधु तो सर्व जीवों को सदैव के लिए अभयदान देता है। वे सर्वथा पाप आस्रव से निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु जो गृहस्थ संयम के लिए तो देवता और देवेन्द्र भी पश्चात्ताप करते हैं श्रावक आंशिक संयमी होते हैं उनकी भी २० प्रतिशत पापक्रिया
था कि उन्होंने मनुष्यभव पाकर भी विशेष श्रुत नहीं पढ़ा, अधिक में मात्र १.२५ प्रतिशत पापक्रिया शेष रह जाती है।
संयम नहीं पाला और विशुद्ध चारित्र का स्पर्श नहीं किया।
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