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छेदसूत्र : एक अनुशीलन
मुनि दुलहराज....
आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण अंग एवं पूर्व इन दो छेदसूत्रों में निशीथ अधिक प्रतिष्ठित हुआ है। व्यवहारभागों में मिलता है। आर्यरक्षित ने आगम साहित्य को चार भाष्य के पाँचवे-छठे उद्देशक में निशीथ की महत्ता में अनेक अनुयोगों में विभक्त किया। वे विभाग ये हैं - १. चरणकरणानुयोग तथ्य प्रतिपादित हैं। २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग।' आगम- व्यवहारभाष्य में आगामों के सत्र और अर्थ की बलवत्ता संकलन के समय आगमों को दो वर्षों में विभक्त किया गया- के विमर्श में सत्र के अर्थ को बलवान माना है। उसी प्रसंग में अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य। नंदी में आगमों का विभाग काल की।
अन्यान्य आगमों के अर्थ के संदर्भ में छेदसूत्रों के अर्थ को दृष्टि से भी किया गया है। प्रथम एवं अंतिम प्रहर में पढ़े जाने
बलवत्तर माना है। इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं वाले आगम 'कालिक' तथा सभी प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम कि चारित्र में स्खलना होने पर या दोष लगने पर छेदसत्रों के 'उल्कालिक' कहलाते हैं। सबसे उत्तरवती वगीकरण में आगम आधार पर विशद्धि होती है. अतः पर्वगत को छोड़कर अर्थ की के चार विभाग मिलते हैं - अंग, उपांग, मूल एवं छेद। वर्तमान
दृष्टि से अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसत्र बलवत्तर हैं। में आगमों का यही वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है।
निशीथभाष्य में छेद-सूत्रों को उत्तमश्रुत कहा है। निशीथछेदसूत्रों का महत्त्व
चूर्णिकार कहते हैं कि इनमें प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन है, इनसे जैन धर्म ने आचारशद्धि पर बहत बल दिया। आचार- चारित्र की विशोधि होती है इसलिए छेदसूत्र उत्तमश्रुत है।' पालन में उन्होंने इतना सूक्ष्म निरूपण किया कि स्वप्न में भी छेदसूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं। उनको यदि हिंसा या असत्यभाषण हो जाए तो उसका भी प्रायश्चित्त आलोचना करने का अधिकार है। छेदसूत्रों के व्याख्याग्रन्थों का करना चाहिए। आगमों में प्रकीर्ण रूप से साध्वाचार का वर्णन भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जो बृहत्कल्प एवं व्यवहार की मिलता है। समय के अंतराल में साध्वाचार के विधि-निषेध- नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी है। परक ग्रन्थों की स्वतंत्र अपेक्षा महसूस की जाने लगी। द्रव्य, छेदसत्र रहस्य.सत्र है। योनिप्राभत आदि ग्रंथों की भाँति क्षेत्र, काल आदि के अनुसार आचार संबंधी नियमों में भी परिवर्तन
इनकी गोपनीयता का निर्देश है। इनकी वाचना हर एक को नहीं आने लगा। परिस्थिति के अनुसार कुछ वैकल्पिक नियम भी
दी जाती थी। निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख मिलता है बनाए गए, जिन्हें अपवादमार्ग कहा गया।
__ कि जहाँ मृग (बाल, अज्ञानी एवं अगीतार्थ) साधु बैठे हों, वहाँ छेदसूत्रों में साधु की विविध आचार संहिताएँ तथा प्रसंगवश इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए। लेकिन सूत्र का विच्छेद न हो अपवाद-मार्ग आदि का विधान है। ये सूत्र साधु-जीवन का इस दृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के आधार पर अपात्र को भी संविधान ही प्रस्तुत नहीं करते, किन्तु प्रमादवश स्खलना होने पर वाचना दी जा सकती है, ऐसा उल्लेख भी मिलता है। दण्ड का विधान भी करते हैं। इन्हें लौकिक भाषा में दण्ड संहिता
पंचकल्पभाष्य के अनुसार छेदसूत्रों की वाचना केवल तथा अध्यात्म की भाषा में प्रायश्चित्त-सूत्र कहा जा सकता है।
परिणामक शिष्य को दी जाती थी, अतिपरिणामक एवं छेदसूत्रों में प्रयुक्त 'कप्पई' शब्द से मुनि के लिए करणीय अपरिणामक को नहीं। अपरिणामक आदि शिष्यों को छेदसत्रों आचार तथा 'नो कप्पइ से अकरणीय या निषिद्ध आचार का की वाचना देने से वे उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं, जैसे मिटी के ज्ञान होता है। बौद्ध-परम्परा में आचार, अनुशासन एवं प्रायश्चि
कच्चे घड़े या अम्लरसयुक्त घड़े में दूध नष्ट हो जाता है।५० संबंधी विकीर्ण वर्णन विनय पिटक में तथा वैदिक परम्परा में ,
अगीतार्थ-बहुल संघ में छेदसूत्र की वाचना एकान्त में अभिशय्या श्रौत्रसूत्र एवं स्मृतिग्रन्थों में मिलता है।
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