________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ समाज एवं संस्कृति
एक अहिंसक समाज के लिए शर्मनाक नहीं हैं ? क्या यह उचित है कि चींटी की रक्षा करनेवाला समाज मनुष्यों के खून से होली खेले? पत्र-पत्रिकाओं में एक दूसरे के विरुद्ध जो विष वमन किया जाता है, लोगों की भावनाओं को एक दूसरे के विपरीत उभाड़ा जाता है, वह क्या समाज के प्रबुद्ध विचारकों के हृदय को विक्षोभित नहीं करता है ? आज आडम्बरपूर्ण गजरथों, पञ्चकल्याणकों और प्रतिष्ठा समारोहों मुनियों के चातुर्मासों में चलनेवाले चौकों और दूसरे आडम्बरपूर्ण प्रतिस्पर्धा आयोजनों में जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का अपव्यय हो रहा है, वह क्या धन के सदुपयोग करनेवाले मितव्ययी जैन समाज के लिए हृदय विदारक नहीं है ? भव्य और गरिमापूर्ण आयोजन बुरे नहीं हैं किन्तु वे जब साम्प्रदायिक दूरभिनिवेश और ईर्ष्या के साथ जुड़ जाते हैं तो अपनी सार्थकता खो देते हैं। पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में हमने एक-एक गाँव में और एक-एक गली में दस-दस मन्दिर तो खड़े कर लिये किन्तु उनमें आबू, राणकपुर, जैसलमेर, खुजराहो या गोमटेश्वर जैसी भव्यता एवं कला से युक्त कितने हैं ? एक-एक गाँव या नगर में चार-चार धार्मिक पाठशालाएँ चल रही हैं, विद्यालय चल रहे हैं किन्तु सर्व सुविधा सम्पन्न सुव्यवस्थित विशाल पुस्तकालय एवं शास्त्र भण्डार से युक्त जैन विद्या के अध्ययन और अध्यापन केन्द्र तथा शोध संस्थान कितने हैं? अनेक अध्ययन-अध्यापन केन्द्र साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा में एक ही स्थान पर खड़े तो किये गये किन्तु समग्र समाज के सहयोग के अभाव में कोई भी सम्यक् प्रगति नहीं कर सका ।
एकता की आवश्यकता क्यों ?
जैन-समाज की एकता की आवश्यकता दो कारणों से है । प्रथम तो यह कि पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष एवं प्रतिस्पर्धा में समाज के श्रम, शक्ति और धन का जो अपव्यय हो रहा है, उसे रोका जा सके। जैसा हमने सूचित किया आज समाज का करोड़ों रुपया प्रतिस्पर्धी थोथे प्रदर्शनों और पारस्परिक विवादों में खर्च हो रहा है, इनमें न केवल हमारे धन का अपव्यय हो रहा है, अपितु समाज की कार्य-शक्ति भी इसी दिशा में लग जाती है। परिणामतः हम योजनापूर्वक समाज सेवा और धर्म प्रसार के कार्यों को हाथ में नहीं ले पाते हैं । यद्यपि अनियोजित सेवाकार्य आज भी हो रहे है किन्तु उनका वास्तविक लाभ समाज और धर्म को नहीं मिल पाता है। जैन समाज के सैकड़ों कॉलेज और हजारों स्कूल चल रहे हैं किन्तु उनमें हम कितने जैन- अध्यापक खपा पाये हैं और उनमें से कितने में जैन दर्शन, साहित्य और प्राकृत भाषा के अध्ययन की व्यवस्था है । देश में जैन समाज के सैकड़ों हॉस्पीटल हैं, किन्तु उनमें हमारा सीधा इन्वाल्वमेण्ट न होने से हम जन-जन से अपने को नहीं जोड़ पाये हैं, जैसा कि ईसाई मिशनरियों के अस्पतालों में होता है । सामाजिक बिखराव के कारण हम सर्व सुविधा सम्पन्न बड़े अस्पताल या जैन विश्वविद्यालय आदि के व्यापक कार्य हाथ में नहीं ले पाते हैं।
दूसरे जैनधर्म की धार्मिक एवं सामाजिक एकता का प्रश्न आज इसीलिए महत्त्वपूर्ण बन गया है कि अब इस प्रश्न के साथ हमारे
Jain Education International
२
अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में किसी वर्ग की आवाज इसी आधार पर सुनी और मानी जाती है कि उसकी संगठित मत-शक्ति एवं सामाजिक प्रभावशीलता कितनी है । किन्तु एक विकेन्द्रित और अननुशासित धर्म एवं समाज की न तो अपनी मत-शक्ति होती है और न उसकी आवाज का कोई प्रभाव ही होता है । यह एक अलग बात है कि जैन समाज के कुछ प्रभावशाली व्यक्तित्व प्राचीनकाल से आज तक भारतीय शासन एवं समाज में अपना प्रभाव एवं स्थान रखते आये हैं किन्तु इसे जैन समाज की प्रभावशक्ति मानना गलत होगा। यह जो भी प्रभाव रहा है उनकी निजी प्रतिभाओं का है, इसका श्रेयं सीधे रूप में जैन समाज को नहीं है। चाहे उनके नाम का लाभ जैन समाज की प्रभावशीलता को बताने के लिए उठाया जाता रहा है। मानवतावादी वैज्ञानिक धर्म, अर्थ सम्पन्न समाज तथा विपुल साहित्यिक एवं पुरातत्त्वीय सम्पदा का धनी यह समाज आज उपक्षित क्यों है ? यह एक नितान्त सत्य है कि भारतीय इतिहास में जैन समाज स्वयं एक शक्ति के रूप में उभरकर सामने नहीं आया । यदि हमें एक शक्ति के रूप में उभर कर आना है तो संगठित होना होगा। अन्यथा धीरे-धीरे हमारा अस्तित्व नाम शेष हो जायेगा । आज 'संघे शक्तिः कलियुगे' लोकोक्ति को ध्यान में रखना होगा।
हमारे विखराव के कारण
यह सही है कि जैन समाज की इस विच्छिन्न दशा पर प्रबुद्ध विचारकों ने सदैव ही चार-चार आँसू बहाये है और उसकी वेदना का हृदय की गहराइयों तक अनुभव किया है। इसी दशा को देखकर अध्यात्मयोगी संत आनन्दघनजी को कहना पड़ा था -
गच्छना बहुभेद नयन निहालतां
तत्व नी बात करता नी लाजे । यद्यपि प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा समय-समय पर एकता के प्रयत्न भी हुए हैं, चाहे उनमें अधिकांश उपसम्प्रदायों की एकता तक ही सीमित रहे हों। भारत जैन- महामण्डल, वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ, श्वेताम्बर जैन- कान्फरेन्स, दिगम्बर जैन महासभा, स्थानकवासी जैनकान्फरेन्स इसके अवशेष हैं। इनके लिए अवशेष शब्द का प्रयोग मैं जानबूझकर इसलिए कर रहा हूँ कि आज न तो कोई अन्तर की गहराइयों से इनके प्रति श्रद्धानिष्ठ है और न इनकी आबाज में कोई बल है ये केवल शोभा मूर्तियों हैं, जिनके लेवल का प्रयोग हम साम्प्रदायिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए या एकता का ढिंढोरा पीटने के लिए करते रहते हैं । अन्तर में हम सब पहले श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, दिगम्बर, बीस पन्थी, तेरापन्थी, कानजीपंथी हैं, बाद में जैन। वस्तुतः जब तक यह दृष्टि नहीं बदलती है, इस समीकरण को उलटा नहीं जाता, तब तक जैन समाज की भावात्मक एकता का कोई आधार नहीं बन सकता । आज स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को जिसके निर्माण के पीछे समाज के प्रबुद्धवर्ग की वर्षों का श्रम एवं साधना थी और समाज का लाखों रुपया व्यय हुआ था, किसने नामशेष बनाया है ? इसके लिए
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org