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________________ जैन-एकता का प्रश्न विश्व के प्रमुख धर्मों में जैनधर्म एक अल्पसंख्यक धर्म है। यथावत् हैं। आश्चर्य तो यह है कि आज भी एक जाति का जैन परिवार लगभग ३ अरब की जनसंख्या वाले इस भूमण्डल पर जैनों की अपनी जाति के वैष्णव परिवार में तो विवाह-सम्बन्ध कर लेगा किन्तु जनसंख्या ५० लाख से अधिक नहीं है अर्थात विश्व के ६०० व्यक्तियों इतर जाति के जैन परिवार में विवाह-सम्बन्ध करना उचित नहीं में केवल १ व्यक्ति जैन हैं। दुर्भाग्य यह है कि एक अल्पसंख्यक धर्म समझेगा । विगत दो दशकों में हिन्दू खटिक एवं गुजराती बलाईयों के होते हुए भी वह आज अनेक सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में बँटा हुआ द्वारा जैनधर्म अपनाने के फलस्वरूप वीरवाल और धर्मपाल नामक जो है । दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो मूल शाखाएँ तो हैं ही, किन्तु वे दो नवीन जैन जातियाँ अस्तित्व में आई है किन्तु उनके साथ भी शाखाएँ भी अवान्तर सम्प्रदायों में और सम्प्रदाय गच्छों में विभाजित पारस्परिक सामाजिक एकात्मकता का अभाव ही है । जैन-जातियों में हैं । दिगम्बर- परम्परा के बीसपंथ, तेरापंथ और तारणंपथ ये तीन पास्परिक अलगाव की यह स्थिति उनकी भावनात्मक एकता में बाधक उपविभाग हैं । वर्तमान में कानजी स्वामी के अनुयायियों का नया है। हमारा बिखराव दोहरा है- जातिगत और दूसरा सम्प्रदायगत । जब सम्प्रदाय भी बन गया है। श्वेताम्बर-परम्परा में मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तक इन जातियों में परस्पर विवाह-सम्बन्ध और समानस्तर की सामाजिक तेरापंथी ये तीन सम्प्रदाय हैं। इनमें मूर्तिपूजक और स्थानकवासी अनेक एकात्मकता स्थापित नहीं होगी तब तक भावनात्मक एकता को स्थायी गच्छों में विभाजित हैं । तेरापंथी सम्प्रदाय में भी अब नवतेरापंथ का उदय आधार नहीं मिलेगा । अनेक जातियों में जो दसा और बीसा का भेद है हुआ है । इनके अतिरिक्त भी जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर और उस आधार पर या सामान्यरूप में भी जातियों को एक दूसरे से परम्पराओं की मध्यवर्ती-योजक कड़ी के रूप यापनीय' नामक एक ऊँचा-नीचा समझने की जो प्रवृत्ति है, उसे भी समाप्त करना होगा। स्वतन्त्र सम्प्रदाय ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर १५ वीं शताब्दी तक वर्तमान परिस्थितियों में चाहे इन जातिगत विभिन्नताओं को मिटा पाना अस्तित्व में रहा । किन्तु आज यह विलुप्त हो गया है । वर्तमान में सम्भव नहीं हो, किन्तु उन्हें समान स्तर की सामाजिकता तो प्रदान की श्रीमद्राजचन्द्र के कविपंथ का भी एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में जा सकती है । यदि समान स्तर की सामाजिकता और पारस्परिक अस्तित्व है, यद्यपि इसके अनुयायी बहुत ही कम हैं । जैनधर्म के ये सभी विवाह-सम्बन्ध स्थापित हो जायें तो जातिवाद की ये दीवारें अगली दोसम्प्रदाय आज परस्पर बिखरे हुए हैं और कोई भी ऐसा सूत्र तैयार नहीं चार पीढ़ियों तक स्वत: ही ढह जायेंगी । जैनधर्म मूलत: जातिवाद का हो पाया है जो इन बिखरी हुई कड़ियों को एक दूसरे से जोड़ सके। समर्थक नहीं रहा है, यह सब उस पर ब्राह्मण-संस्कृति का प्रभाव है। भारत जैन महामण्डल नामक संस्था के माध्यम से इन्हें जोड़ने का प्रयास यदि हम अन्तरात्मा से जैनत्व के हामी हैं तो हमें ऊँच, नीच और किया. गया किन्तु उसमें उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं हुई। जातिवाद की इन विभाजक दीवारों को समाप्त करना होगा, तभी जैन समाज न केवल धार्मिक दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों में बँटा भावनात्मक सामाजिक एकता का विकास हो सकेगा। हुआ है अपितु सामाजिक दृष्टि से अनेक जातियों और उपजातियों में विभाजित है। इसमें अग्रवाल, खण्डेवाल, बघेरवाल, मोढ़ आदि कुछ साम्प्रदायिकता का विष जातियों की स्थिति तो ऐसी है जिनके कुछ परिवार जैनधर्म के अनुयायी आज जैन समाज का श्रम, शक्ति और धन किन्हीं रचनात्मक हैं तो कुछ वैष्णव । एक ही जाति में विभिन्न जैन-उपसम्प्रदायों के कार्यों में लगने के बजाय पारस्परिक संघर्षों, तीर्थो और मन्दिरों के अनुयायी भी पाये जाते हैं - जैसे ओसवालों में श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक, विवादों, ईर्ष्यायुक्त प्रदर्शनी और आडम्बरों तथा थोथी प्रतिष्ठा की स्थानकवासी और तेरापंथी। इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी तो प्रचुरता प्रतिस्पर्धा में किये जाने वाले आयोजनों में व्यय हो रहा है । इस नग्न से पाये ही जाते हैं किन्तु क्वचित् दिगम्बर जैन और वैष्णव धर्म के सत्य को कौन नहीं जानता है कि हमने एक-एक तीर्थ और मंदिर के अनुयायी भी मिलते हैं। झगड़ों में इतना पैसा बहाया है और बहा रहे हैं कि उस धन से उसी स्थान पर दस-दस भव्य और विशाल मन्दिर खड़े किये जा सकते थे। जातिवाद का विष अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, मक्सी, केसरियाजी जैसे अनेक तीर्थ-स्थलों पर डा० विलास आदिनाथ संगवे ने अपनी पुस्तक 'जैन-कम्युनिटी' आज भी क्या हो रहा है ? जिस जिन-प्रतिमा को हम पूज्य मान रहे हैं, में उत्तर भारत की ८४ तथा दक्षिण भारत की ९१ जैन जातियों का उसके साथ क्या-क्या कुकर्म हम नहीं कर रहे हैं ? उस पर उबलता उल्लेख किया है। पुराने समय में तो इन जातियों में पारस्परिक भोजन- . पानी डाला जाता है, नित्यप्रति गरम शलाखों से उसकी आँखे निकाली व्यवहार सम्बन्धी कठोर प्रतिबन्ध थे। विवाह सम्बन्ध तो पूर्णतया वर्जित और लगायी जाती है । अनेक बार लैंगोट आदि के चिह्न बनाये और थे। आज खान-पान (रोटी-व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध तो शिथिल मिटाये गये हैं। क्या यह सब हमारी अन्तरात्मा को कचोटता नहीं है ? हो गये हैं किन्त विवाह (बेटी-व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध अभी भी पारस्परिक संघर्षों में वहाँ जो घटनाएँ घटित हुई हैं, वे क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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