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________________ क्रिया परमपूज्य आगमज्ञाता साहित्याचार्य मुनिराज श्री देवेन्द्रविजयजी महाराज के शिष्य मुनिश्री नरेन्द्र विजयजी 'नवल'.... यों तो संसार के सभी प्राणी क्रिया करते हैं, कोई भी बिना कभी किसी से मामूली सा झगड़ा हो जाए तो आप वकील क्रिया के नहीं रह सकता, पर यहाँ लौकिक क्रिया के विषय में की सलाह लेते हैं। घर में किसी को मामूली सा बुखार हो जाए नहीं कहना है, यहाँ तो लोकोत्तर क्रिया, धर्मक्रिया, सम्यक् क्रिया तो डॉक्टर के पास जाते हैं। मकान बनाना हो तो इंजीनियर की अर्थात् सम्यक् चारित्र के विषय में चर्चा करनी है। सलाह लेते हैं। फीस देकर, सलाह लेकर उसके कहे अनुसार आत्मा और कर्म का बन्धन अनादिकाल से है। संसार में करते हैं, किन्तु धर्मगुरु बिना फीस लिए जीवन का सच्चा मार्ग यह बन्धन मोह और अज्ञान के कारण है। फिर भी इस संसार में बताते हैं और सच्ची सलाह देते हैं, पर उनकी सलाह पर चलते सख की खोज निरंतर चाल है। सभी प्राणी सखी होना चाहते हैं. कितन लाग हा कोई भी दुःखी नहीं रहना चाहता, पर ज्ञानियों का कहना है कि धर्मक्रिया में सबसे प्रथम स्थान सत्संग का है। धर्म की संसार में दुःख ही दुःख भरा है। संसार में दुःखभय, पापभय, वाणी को तथा शास्त्र की वाणी को निरन्तर सुनना चाहिए। रोगभय, वेदनाभय, जराभय और न जाने कितने-कितने और सन्तजनों के मुख से उच्चरित जिनवाणी को सुनने से विचारशुद्धि कैसे-कैसे भय भरे पड़े हैं। प्राप्त होती है। वस्त्र शुद्ध हों, मकान शुद्ध हो, खाना-पीना शुद्ध ये दःख क्यों हैं? क्योंकि आत्मशक्ति दब गई है और कर्म हो, सब कुछ शुद्ध हो, पर विचार शुद्ध न हों, आचरण शुद्ध न हो की शक्ति जीव पर हावी हो गई है। कर्म की शक्ति को सत्त्वहीन । करने के लिए, कर्म के बन्धनों को तोड़ने के लिए धर्मशक्ति बुद्धि की शुद्धि होगी तो सिद्धि भी मिलेगी, प्रसिद्धि भी का प्रयोग आवश्यक है। चार पुरुषार्थों में धर्म मुख्य पुरुषार्थ है। होगी और समृद्धि भी बढ़ेगी। बुद्धि की शुद्धि के बारे में एक धर्म बीज है अर्थ और काम तो तना और पत्तियां हैं, मोक्ष उसका दृष्टान्त याद आ गया है। एक महात्माजी नाव में संवार थे। कुछ फल है। अन्य लोग भी उस नाव में बैठे थे। कछ तो शान्तिप्रिय सज्जन कर्मबन्धन को काटने के लिए धर्मक्रिया या सम्यक् चारित्र थे, कुछ को उन्माद सूझ रहा था। खाली दिमाग शैतान का घर की आवश्यकता है। संसारी जीव मोहान्धकार और अज्ञानान्धकार होता है। परस्पर बातचीत होने लगी। कुछ बातें सत्य होती हैं, में भटक रहे हैं। धर्म रूपी प्रकाश से मार्ग तो मिला है. पर उस कुछ सत्य के करीब होती हैं, कुछ झठ होती है और कछ झटके मार्ग पर चलने से ही कर्म कटेंगे। परम ज्ञानी पुरुष स्वयं प्रकाश करीब होती हैं। महात्माजी ने कहा, भाइयो! बातें करनी हैं तो प्राप्त कर उस पर चलते हैं और दसरों को भी उस पर चलने की कुछ अच्छी बातें करो, जिन्हें सुनकर प्रसन्नता हो, आपस में प्रेरणा देते हैं। मधुरता बढ़े, मित्रता बढ़े। आप लोगों की बातें सुनकर तो सभी अन्य यात्रीगण लज्जा एवं घृणा के भाव से ओतप्रोत हो रहे हैं। श्री हरिभद्रसूरिजी ने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी। महात्माजी की शिक्षा लोगों को ऐसी लगी मानो साँप की पूँछ पर आज तो उनमें से कुछ ही उपलब्ध हैं। उनका धर्मबिन्दु ग्रन्थ पाँव रख दिया हो। वे लोग महात्माजी को ही भला-बुरा कहने जीवन-निर्माण के लिए अत्यंत उपयोगी है। जीवन में नैतिक, लगे। महात्माजी भजन में लीन हो गए। एकाएक आकाशवाणी धार्मिक, व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग इसमें हुई, महात्माजी! अगर आप कहें तो इन दुष्टों को अभी फल मिलेगा। चखा दूं, इस नाव को उलट दूँ। आकाशवाणी सुनकर सब towaroorawbrowomadridrodwordwardwardrobinirb- १०Fardastbudiairdrobordoubrinidiad-dird-ordsmitrana Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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