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________________ प्राचीन दिगम्बराचार्य और उनकी साहित्यसाधना डॉ. रमेशचन्द्र जैन, जैन मन्दिर के पास, बिजनौर (उ.प्र.) २४६७०१.....) आचार्य गुणधर कषायपाहुड का दूसरा नाम पेज्जदोसपाहुड है। पेज्ज का द्वादशाङ्गश्रुत के बारहवें अङ्ग के जो पाँच भेद शास्त्रों में अर्थ राग है। यह ग्रंथ राग और द्वेष का निरूपण करता है। निरूपित हैं, उनमें से चौथे भेद पूर्वगत के चौदह भेदों में से दूसरे क्रोधादि कषायों की राग-द्वेष परिणति और उनकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध सम्बन्धी विशेषताओं का विवेचन ही अग्रायणीय पूर्व की १४ वस्तुओं में से पाँचवीं चयनलब्धि के २० प्राभृतों में से चौथे कर्म प्रकृति प्राभृत के २४ अनुयोग द्वारों इस ग्रंथ का मूल वर्ण्य विषय है। यह ग्रंथ सूत्रशैली में निबद्ध है। गुणधर ने गहन और विस्तृत विषय को अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत में से भिन्न-भिन्न अनुयोग-द्वार एवं उनके अवान्तर अधिकारों से षट्खण्डागम के विभिन्न अङ्गों की उत्पत्ति हुई। पाँचवें ज्ञान कर सूत्रपरम्परा का आरम्भ किया है। उन्होंने अपने ग्रंथ के निरूपण की प्रतिज्ञा करते हुए गाथाओं को सुत्तगाहा कहा है।' प्रवाद पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुडं से कषायपाहुड की उत्पत्ति हुई। आचार्य धरसेन- भगवान महावीर के निर्वाण से ६८३ वर्ष बीत जाने पर आचार्य धरसेन हुए। नन्दिसंघ की पट्टावली के गुणधराचार्य ने कषायपाहुड की रचना षटखण्डागम से अनुसार धरसेनाचार्य का काल वीर-निर्वाण से ६१४ वर्ष पश्चात् पूर्व की। गणधरग्रथित जिस पेज्जदोसपाहुड में सोलह हजार मध्यम पद थे, अर्थात् जिनके अक्षरों का परिमाण दो कोटाकोटी जान पड़ता है। इकसठ लाख सत्तावन हजार दो सौ बानवे करोड़, बासठ लाख आचार्य धरसेन अष्टाङ्ग महानिमित्त के ज्ञाता थे, जिस आठ हजार था, इतने महान् विस्तृत ग्रंथ का सार २३३ गाथाओं प्रकार दीपक से दीपक जलाने की परम्परा चालू रहती है, उसी में आचार्य गुणधर (विक्रम की दूसरी शती का पूर्वार्द्ध) ने प्रकार आचार्य धरसेन तक भगवान महावीर की देशना आंशिक कषायपाहुड में निबद्ध किया। कषायपाहड पन्द्रह अधिकारों में रूप में पूर्ववत् धारा प्रवाह रूप से चली आ रही थी। आचार्य बँटा हुआ है - १. पेज्जदोसविभक्ति, २. स्थितिविभक्ति, ३. धरसेन काठियावाड़ में स्थित गिरिनगर (गिरिनार पर्वत) की अनुभागविभक्ति, ४. प्रदेशविभक्ति, झीणाझीणस्थित्यन्तिक, ५. चन्द्रगुफा में रहते थे। जब वे वृद्ध हो गए और अपना जीवन बंधक, ६. वेदक, ७. उपयोग, ८. चतुः स्थान, ९. व्य जन, अत्यल्प अवशिष्ट देखा, तब उन्हें यह चिंता हुई कि अवसर्पिणी १०. दर्शनमोहोपशमना, ११. दर्शनमोहक्षपणा, १२. काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान का प्रतिदिन हास होता जाता है। इस संयमासंयमलब्धि, १३. संयमलब्धि, १४. चारित्रमोहोपशमना. समय मुझे जो कुछ श्रुत प्राप्त है, उतना भी आज किसी को नहीं १५. चारित्रमोहक्षपणा। है। यदि मैं अपना श्रुत दूसरे को नहीं दे सका, तो यह भी मेरे ही २३३ गाथाओं द्वारा सूचित अर्थ की सूचना यतिवृषभ ने साथ समाप्त हो जाएगा। उस समय देशेन्द्र नामक देश में वेणाकतटीपुर में महामहिमा के अवसर पर विशाल मुनि समुदाय ६००० श्लोकप्रमाण चूर्णिसूत्रों द्वारा दी और उनका व्याख्यान विराजमान था। श्री धरसेनाचार्य ने एक ब्रह्मचारी के हाथ वहाँ उच्चारणाचार्य ने १२००० श्लोकप्रमाण उच्चारणवृत्ति के द्वारा मुनियों के पास एक पत्र भेजा। उसमें लिखा था - किया। उसका आश्रय लेकर ६० हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका रची गई। "स्वस्ति श्रीमत् इत्य जयन्ततटनिकटचन्द्रगुहावासाद् धरसेनगणी वेणाकतटसमदितयतीन अभिवन्द्य कार्यमेवं rawitationsansarsanstarsansartoonsortal ४२ Moteicintionsansarsansationsansartandidation Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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