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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन यथार्थ स्वरूप से अनभिज्ञ हम गुरुडमवाद के दलदल में फँसते चले नहीं होता है। श्रावक धर्म के पालन के लिए उपर्युक्त चतुर्विध कषायों जा रहे है। पर नियन्त्रण की क्षमता का विकास आवश्यक है। जब तक व्यक्ति आज वीतरागता के प्रति हमारी श्रद्धा कितनी जर्जर हो चुकी अपने क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चार कषायों पर किसी भी प्रकार है, इसका प्रमाण यही है कि आज सामान्य मुनिजनों, आचार्यों से का नियन्त्रण कर पाने में अक्षम होता है, तब तक वह श्रावक-धर्म लेकर गृहस्थ उपासक तक सभी लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए की साधना नहीं कर सकता। क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियों वीतराग की निष्काम भक्ति को भूलकर तीर्थङ्कर या देवी-देवताओं की पर नियन्त्रण कर लेने की क्षमता का विकसित हो जाना ही श्रावक सकाम-भक्ति में लगे हुए हैं। आज वीतराग तीर्थङ्कर देव के स्थान पर धर्म की उपलब्धि का प्रथम चरण है। पद्मावती, चक्रेश्वरी, भौमिया जी, घंटाकर्ण महावीर और नाकोड़ा भैरव वर्तमान सन्दों में इन चारों अशुभ आवेगों के नियन्त्रण की अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। हमारे अधिकांश साधु-साध्वी ही नहीं, उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जैनागमों के अनुसार आचार्य तक यक्षों और देवियों की साधना में लगे हुए हैं। वीतरागता क्रोध का तत्त्व पारस्परिक सौहार्द (प्रीति) को समाप्त करता है और के उपासक इस धर्म में आज यन्त्र-मन्त्र व जादू-टोना सभी कुछ प्रविष्ट सौहार्द के अभाव में एक दूसरे के प्रति सन्देह और आशंका होती होते जा रहे हैं। वीतरागता के साधक कहे जाने वाले मुनिजन भी है। यह स्पष्ट है कि सामाजिक जीवन में पारस्परिक अविश्वास और अपनी चमत्कार-शक्ति का बड़े गौरव के साथ बखान करते हैं। जिस आशंकाओं के कारण असुरक्षा का भाव पनपता है और फलत: हमें धर्म की उत्पत्ति लौकिक मूढ़ताओं और अन्ध-श्रद्धाओं को समाप्त करने अपनी शक्ति का बहुत कुछ अपव्यय करना पड़ता है। आज अन्तर्राष्ट्रीय के लिए हुई हो, वही आज अन्ध-विश्वासों में आकण्ठ डूबता जा रहा क्षेत्र में जो शस्त्र-संग्रह और सैन्य-बल बढ़ाने की प्रवृत्ति परिलक्षित है। हमारी आस्थाएँ वीतरागता के साथ न जुड़कर लौकिक-एषणाओं हो रही है और जिस पर अधिकांश राष्ट्रों की राष्ट्रीय आय का ५० की पूर्ति के लिए जुड़ रही हैं। आज महावीर के पालने की अपेक्षा प्रतिशत के अधिक व्यय हो रहा है, वह सब इस पारस्परिक अविश्वास लक्ष्मी जी का स्वप्न महँगा बिकता है। अगर हमारी आस्थाएँ धर्म के का परिणाम है। आज धार्मिक और सामाजिक जीवन में जो असहिष्णुता नाम पर लौकिक एषणाओं की पूर्ति तक ही सीमित हैं, तब फिर हमारा है, उसके मूल में घृणा, विद्वेष एवं आक्रोश का तत्त्व ही है। यह वीतराग के उपासक होने का दावा करना व्यर्थ है। आज जब हम ठीक है कि व्यक्ति जब तक परिवार, समाज एवं राष्ट्र से जुड़ा है, गृहस्थ धर्म की प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं, हमें इस यथार्थ उसमें किसी सीमा तक क्रोध या आक्रोश होना आवश्यक है, अन्यथा स्थिति को समझ लेना होगा। जीवन में या साधना के क्षेत्र में सम्यक् उसका अस्तित्व ही खतरे में होगा, किन्तु उसे नियन्त्रण में होना चाहिये श्रद्धा की कितनी आवश्यकता है? यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है, और अपरिहार्य स्थिति में ही उसका प्रकटन होना चाहिये। किन्तु श्रद्धा के नाम पर अन्धविश्वासों का जो एक दुश्चक्र हम पर हावी हमारे पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धों में दरार का दूसरा महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है, उससे कैसे बचा जाय? यही आज का महत्त्वपूर्ण __कारण व्यक्ति का अहंकार या घमण्ड है। एक गृहस्थ के लिए यह प्रश्न है। वस्तुत: इस सबका मूल कारण यह है कि आज श्रावक-वर्ग आवश्यक है कि वह अपनी अस्मिता एवं स्वाभिमान का बोध रखे, को धर्म के यथार्थ स्वरूप का कोई बोध नहीं रह गया है। हमारी श्रद्धा किन्तु उसे अपने अहंकार पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। समाज समझपूर्वक स्थिर नहीं हो रही है, श्रद्धा का तत्त्व व्यक्ति का आध्यात्मिक में जो विघटन या टूटन पैदा होती है, उसका मुख्य कारण समाज विकास कर सकता है, लेकिन वह तभी सम्भव है जब श्रद्धा ज्ञानसम्मत के कर्णधारों, फिर चाहे वे गृहस्थ हों या मुनि, का अहंकार ही है। हो और हमारी विवेक की आँखें खुली हों। आज हम उस उक्त को अहंकार पारस्परिक विनय एवं सम्मान में भी बाधक होता है। इससे भूल गये हैं, जिसमें कहा गया है कि 'पण्णा समिक्खए धम्मो' अर्थात् दूसरों के अहं पर चोट पहुँचती है और उसके परिणाम स्वरूप सामाजिक धर्म के स्वरूप की प्रज्ञा के द्वारा समीक्षा करो। सम्बन्धों में दरार पड़ने लगती है। अहंकार पर चोट लगते ही व्यक्ति अपना अलग अखाड़ा जमा लेता है, जिसके परिणाम स्वरूप धार्मिक कषाय-जय : गृहस्थ-धर्म की साधना की आधार- भूमि एवं साम्प्रदायिक संघर्ष होते हैं। सभी साम्प्रदायिक अभिनिवेशों के श्रावक-धर्म और उसकी प्रासंगिकता की चर्चा करते समय हमें पीछे कुछ व्यक्तियों के अपने अहं के पोषण की भावना के अतिरिक्त श्रावक-आचार के मूलभूत नियमों की वर्तमान युग में क्या उपयोगिता अन्य कोई कारण नहीं है। कपट-वृत्ति या दोहरा-जीवन वर्तमान है? इस पर विचार कर लेना होगा। जैन-धर्म के अनुसार श्रावकत्व सामाजिक जीवन का एक सबसे बड़ा अभिशाप है। झूठे अहं के पोषण की भूमिका को प्राप्त करने के लिए सर्व प्रथम व्यक्ति को क्रोध, मान, के निमित्त अथवा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को साधने के लिए जो छल-छद्म माया और लोभ-इन चार कषायों की अतितीव्र, अनियन्त्रित, नियन्त्रित सामाजिक जीवन में बढ़ रहे हैं, उनका मूलभूत कारण कपट-वृत्ति (माया) और अत्यल्प इन चार अवस्थाओं में से प्रथम दो अवस्थाओं पर ही है। विजय-प्राप्ति अपरिहार्य मानी गयी है। साधक जब तक अपने क्रोध, इस प्रकार अनियन्त्रित लोभ संग्रह-वृत्ति का विकास करता है मान. माया और लोभ पर नियन्त्रण रखने की क्षमता को विकसित और उसके कारण शोषण पनपता है और परिणाम स्वरूप समाज में नहीं कर लेता, तब तक श्रावकत्व की भूमिका को प्राप्त करने योगय गरीब और अमीर की खाई बढ़ती जाती है। पूँजीपति और श्रमिकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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