________________
दक्षिण भारत का जैन - पुरातत्त्व
आन्ध्र
आन्ध्रप्रदेश में जैनधर्म मगध से पहुँचा । नयसेन ने धर्मामृत में जैन राजा को अंगदेश से आंध्र के भत्तिपोल में पहुँचने की कथा को तीर्थंकर वासुपूज्य तथा इक्ष्वाकु काल में माना है। हरिषेण के वृहत्कथाकोष ( ९३१ ई.) में कुछ और ही लिखा है। जो भी हो, पर इतना निश्चित है कि वहाँ जैनधर्म महावीर से पहले अस्तित्व में था।
आचार्य कुन्दकुन्द आंध्र और कर्नाटक के सीमावर्ती Satusकुन्द नगर के ही थे, जिनका समय ल. प्रथम शती है। जैनसंस्कृति में महावीर के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता है। कुन्दकुन्दाम्नाय नाम से जैनधर्म को पहचाना जा सकता है। कोण्डकुन्द पहाड़ी पर एक छोटी सी गुफा है जो उनकी तपस्या· स्थली मानी जाती है । गोदावरी जिले के आर्यवतम में एक जैनटेराकोट मिला है जिसकी पूजा की जाती है। मथुरा में भी प्रथम शती का ऐसा ही टेराकोट प्राप्त हुआ है। यहाँ छह जैन मूर्तियाँ मिली है, लगभग इसी समय की । आर्यावतम से मिलती-जुलती मूर्तियाँ गौतमी और ककिनद में भी पाई गई हैं।
कुन्दकुन्दाम्नाय में ही उमास्वाति और समन्तभद्र हुए जो दक्षिण के ही थे । नन्दि, देव, सिंह, सेन आदि के नाम से बाद में गणगच्छ बने और सभी जैनाचार्य इन्हीं गणगच्छों की परिधि में आ गए। समन्तभद्र के बाद सिंहनन्दि पेरूर (आंध्र) में ही हुए वक्रगच्छ में। पूज्यपाद, अकलंक, वासवचंद्र, बालसरस्वती, गोपनन्दि आदि प्रमुख आचार्य आंध्र से ही रहे हैं।
Jain Education International
पुनः कीलभद्राचार्य और उनकी परंपरा को अर्हत जिनपूजा के लिए दिया जाता है। विजयवाड़ा में अब यह सब मात्र ऐतिहासिक उल्लेख रह गए हैं। गुण्डिवाड़ा और धर्मावरम में अवश्य कुछ जैनमूर्तियाँ इस काल की पाई जाती हैं।
डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर'...
राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष जैन धर्मावलम्बी था। उसने विरुदंकर्यपोल में एक जैनमंदिर बनवाया । यहाँ की तीर्थंकर महावीर की मूर्ति मद्रास संग्रहालय में रखी गई है। भीम शल्कि ने हनुमानकोंड दुर्ग में जैन मंदिर बनवाए, यहाँ के पद्माक्षि जैन मंदिर में यक्ष-यक्षी की सुंदर प्रतिमा मिली है। वेंगि के गुणग विजयादित्य ने भी जल्लुर में जैनवस्ती का निर्माण कराया। रामतीर्थम में दो जैन- गुफाएँ हैं । यहीं पास में गुरुभक्त पहाड़ी पर एक जैनगुफा है, जिसमें अनेक जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ रखी हुई हैं।
दनवुलपद (चुटुपट्ट जिला) में नित्यवर्ष इन्द्र तृतीय (८१४१७ ई.) के काल की एक वृहदाकार जैन - वसदि मिली है, जिसमें दो मंदिर, चार तोरण, दो चौमुख, एक तीर्थंकर पादपीठ, दो दसफुटी पार्श्व प्रतिमायें और एक पद्मावती - प्रतिमा खुदाई में प्राप्त हुई है। दुर्गराज ने कटकाभरण नामक जिनालय बनवाया और उसके साथ ही व्यय के लिए एक ग्राम दान में दिया। इस मंदिर के मुख्य आचार्य थे कोटिमदुवगणी और यापनीयसंघ के श्रीमंदिर देव ।
६०९ ई. में पश्चिमी चालुक्यवंशी पुलकेशी द्वितीय ने कलिंग पिष्टपुर वेंगि आदि पर विजय पाते हुए आगे दक्षिण में बचा वेंग का राज्य अपने छोटे भाई कुब्जविष्णुवर्धन को दिया ६२७ ई. में । इस मल्लिकार्जुन पहाड़ी का संबंध श्वेताम्बर संप्रदाय से भी रहा है । चपट्ट जिले में दिगंबर आचार्य वृषभ के आवास की सूचना सन्यसिगुण्डि गुफा से मिलती है। विष्णुवर्धन तृतीय (७१८७५५ ई.) का एक शिलालेख मिला है, जिसमें कहा गया है कि मुनिसिकोन्द्र जिस पर किसी और ने अधिकार कर लिया था,
ট
१२१
पश्चिम गोदावरी जिले में पेदिमिरम में एक जैन पल्लि है, यहाँ जैनमूर्ति मिली है। अम्मराज द्वितीय के काल में भी कचमारू में जैनधर्म लोकप्रिय था। अरहनन्दि के आग्रह पर अम्मराज ने कलचम्बरू गाँव का दान किया जैनमंदिर के लिए, जो आज नष्ट हो गया है। ताम्रपत्र इसका मिला है। एक अन्य लेख भी मिला है, जिसमें विजयवाडा में इसी राजा द्वारा निर्मित दो जिनालयों का उल्लेख है। वहीं बोधन में श्रमण बेलगोल से भी बड़ी बाहुबली मूर्ति की स्थापना की गई थी पर वह भी आज नहीं मिलती। यह बोधन शायद पोदनपुर रहा होगा। बड्डेग ने विमुलवाड़ा में और
Sum
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org