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२. प्रवृत्ति
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ निर्दिष्ट व्रत नियमों या अनुष्ठानों का एकाग्रता पूर्वक सम्यक् पालन करना प्रवृत्ति है ।
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३. विध्नजय - यम-नियम आदि का पालन करते समय उपस्थित बाह्य एवं आंतरिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना विघ्नजय कहलाता है।
४. सिद्धि - सिद्धि से चित्त शुद्धि में साधक को सम्यक् दर्शनादि की प्राप्ति होती है और वह आत्मानुभव में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं करता । उसकी कषाय से उत्पन्न सारी चंचलता नष्ट हो जाती है और वह निम्नवर्ती जीवों के प्रति दया, आदर-सत्कार आदि का ख्याल रखने लगता है।
५.
विनियोग - इस अवस्था में साधक में धार्मिक वृत्तियों की क्षमता आ जाती है तथा निरंतर आत्मिक विकास होने लगता है। फलतः साधक में परोपकार, कल्याण आदि भावनाओं की वृद्धि होती है । वृद्धि की यही अवस्था विनियोग कहलाती है। "
इनके अतिरिक्त विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, नियमउपनियमों आदि का विधान किया गया है, जिनमें आसन, प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार, ध्यान आदि प्रमुख माने गाए हैं। कहा भी गया है कि ध्यानादि उत्तरोत्तर चित्त की शुद्धि करते हैं, इसलिए ये चारित्र ही हैं। "
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जैन-साधना एवं आचार
परम्परा में दो आचार-संहिताओं का विधान किया गया है। एक का नाम है - श्रावकाचार, तो दूसरी का नाम है - श्रमणाचार । श्रावकों की आचार संहिता
सामान्य भाषा में गृहस्थ के लिए श्रावक शब्द का प्रयोग होता है। जैनागमों में श्रावक के लिए विभिन्न शब्दों के प्रयोग देखने को मिलते हैं। यथा- देश - संयमी, गृहस्थ, श्राद्ध, उपासक, अणुव्रती, देशविरत, आगारी आदि । १९ श्रावकों के प्रकारों को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कोई श्रावकों के दो भेदों को मानते हैं, तो कोई तीन और कोई चार | जैसे धर्मामृत में श्रावक के तीन प्रकार बताए गए हैं - १. पाक्षिक २. नैष्ठिक और ३. साधक । १२ चारित्रसार में श्रावक को ब्रह्मचर्य २. गृहस्थ ३. वानप्रस्थ और ४. संन्यास - इन चार आश्रमों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । १२ इसी प्रकार धर्मबिन्दु में आचार्य हरिभद्र ने १. सामान्य और २. विशेष के रूप में श्रावकों के दो भेद बताए हैं । १४
जैन - परम्परा दो प्रकार की आचार संहिताओं का विधान करती है। एक श्रावकों के लिए और दूसरी श्रमणों के लिए। क्योंकि दोनों की साधनाभूमि अथवा जीवनव्यवहार अलगअलग हैं। मुनि जहाँ बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्यागी होती है, वहीं श्रावक कुछ परिग्रहों का त्यागी होता है। इसलिए दोनों के लिए अलग-अलग आचारों का विधान किया गया है । श्रमणों की तुलना में श्रावकों को परिस्थिति एवं काल की अपेक्षा से मर्यादित व्रत-नियमों का पालन करना पड़ता है, फिर भी योग-साधना के लिए उसे पूरी छूट है। मुनि या श्रमण तो पूर्ण विरक्त या गृह-त्यागी होता है, जिससे वह योग-साधना करने में सक्षम होता है, लेकिन एक श्रावक के सर्वत्यागी बनने में शंका उपस्थित होती है, क्योंकि जीवकोपार्जन के लिए उसे विविध उद्योग आदि का आलंबन लेना पड़ता है। ऐसे श्रमण की भाँति वह भी सम्पूर्ण परिग्रह से मुक्त होकर योगसाधना से संपन्न हो सकता है। इन्हीं दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए जैन
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श्रावकधर्म के विषय में भी जैनाचार्य एकमत नहीं हैं। जैसा कि डॉ. मोहनलाल मेहता ने अपनी पुस्तक 'जैन आचार'
में उल्लेख किया है - उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डक श्रावकाचार आदि में संलेखना सहित बारह व्रतों के आधार पर श्रावकधर्म का प्रतिपादन किया गया है। वहीं आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र - प्राभृत, स्वामी कार्तिकेय ने द्वादश अनुप्रेक्षा में एवं आचार्य वसुनन्दि ने वसुनन्दि - श्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक धर्म का निरूपण किया है। १५ श्रावक के बारह व्रत - योगशास्त्र में श्रावक के बारह व्रत इस प्रकार कहे गए हैं पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत। १६ आचार्य कुन्दकुन्द ने ग्यारह प्रतिमाओं के साथ ही बारह व्रतों का उल्लेख किया है । १७ परन्तु कहीं-कहीं पाँच अणुव्रतों को मूलगुण भी माना गया है और इनके साथ मद्य, माँस एवं मधु का त्याग भी मूलगुण के अंतर्गत रखा गया है।" इसी प्रकार कहीं अणुव्रतों के साथ जुआ, मद्य एवं माँस के त्याग को भी मूलगुण माना गया है । १९
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अणुव्रत जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण के लिए पाँच महाव्रतों का विधान किया गया है, उसी प्रकार श्रावक के लिए पाँच अणुव्रतों का विधान किया है। या यों कहा जा सकता है कि जैसे महाव्रतों के अभाव में श्रमण का श्रामण्य निर्जीव-सा प्रतीत
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