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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ Jain Education International ५. परिग्रह परिमाण व्रत - गृहस्थ को भूमि, भवन, खेत, वस्तु, धन, धान्य, गाय, भैंस आदि की आवश्यकता पड़ती है। अतः इन्हें अपने परिवार की आवश्यकतानुसार रखना, इससे अधिक धन उपार्जन की दृष्टि से न रखना, इस व्रत में आता है। इस व्रत में परिग्रह या संग्रह को बुरा बताया गया है । उत्पादन को बुरा नहीं कहा गया है| आनंद, कामदेव आदि आदर्श श्रावकों के पास हजारों गायें थी उन्होंने उनका परिमाण किया, उन्हें बेचा नहीं है। परिमाण करने के पश्चात् गायों के जो बछड़े-बछड़ी पैदा होते, वे जब परिमाण से अधिक हो जाते तब दूसरों को दान दे दिए जाते थे। जिससे वे उनका पालन पोषण कर अपनी आजीविका चलाते थे। जैनधर्म में ग्रहस्थ के लिए उत्पादन करने का निषेध नहीं है, क्योंकि कोई व्यक्ति भोजन करना तो उपादेय माने और अन्नउत्पादन को हेय माने, यह घोर विसंगति है। अतः उत्पादन सर्वहितकारी प्रवृत्ति से करना परंतु उसका अपनी आवश्यकताओं से अधिक संग्रह न करना ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है । इस व्रत के पालन से उदारता, सेवा, परोपकार की श्रेष्ठ वृत्ति का विकास होता है। सेठ व श्रेष्ठ कहा ही उसे जाता है जो अपने धन का उपयोग दूसरों की सेवा में करे। इस व्रत का पालन किया तो विश्व की गरीबी दूर हो जाए । आर्थिक शोषण का अन्त हो जाए • और जीवन के लिए आवश्यक अन्न, वस्त्र, मकान आदि की कमी न रहे। आज जो आर्थिक जगत् में होड़ लगी है तथा संघर्ष हो रहा है, उसका कारण संग्रहवृत्ति अर्थात् परिग्रह ही है। आर्थिक बुराइयों एवं समस्त प्रदूषणों से बचने का उपाय है, परिग्रह - परिमाण व्रत। इस प्रकार इस व्रत के पालन से पर्यावरण का स्वयमेव शुद्धिकरण हो जाता है। ६. दिशा-परिमाण व्रत - धन कमाने तथा विषय - सुख भोगने के लिए मनुष्य देश देशान्तरों में भ्रमण करता है । यह भ्रमण परिग्रह व भोग- वृद्धि हेतु होता है। ऐसे भ्रमण को जैन-दर्शन में मानव-जीवन के लक्ष्य शान्ति, मुक्ति तथा परमानंद में बाधक माना गया है और इससे यथासंभव बचने के लिए मर्यादा करने का विधान किया गया है। वर्तमान में लोग धन कमाने, सुख-सुविधा पाने एवं अधिकाधिक भोग भोगने के लिए अपनी जन्म भूमि को छोड़कर शहरों की ओर दौड़ रहे हैं। फलस्वरूप एक ही शहर में लाखों, आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म करोड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी होती जाती रही है। उन लोगों के यांत्रिक लाखों वाहनों से तथा उद्योगों में लगे यंत्रों से निकली विषैली गैसों से, उनके मल-मूत्र से, उनके द्वारा फेंके हुए कूड़े कचरे से, उनके श्वास से निकली कार्बनडाइ-ऑक्साइड से भयंकर प्रदूषण फैलता जा रहा है। भारत में दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, कानपुर आदि शहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । जहाँ श्वास लेने के लिए शुद्ध वायु मिलना कठिन हो गया है, जिससे वहाँ दमा, क्षय, हृदयरोग, कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ बड़ी तीव्र गति से फैलती जा रही हैं। यदि दिशा परिमाणव्रत का पालन किया जाए अर्थात् अपने गाँव में रहकर स्वास्थ्यप्रदायक, सादा, सहज, स्वाभाविक, प्राकृतिक जीवन जिया जाए तो बड़े-बड़े नगरों में उत्पन्न होने वाले समस्त प्रदूषणों एवं दूषित पर्यावरण संबंधी. समस्याओं से सहज ही में बचा जा सकता है। For Private ७. उपभोग - परिभोग-परिमाण व्रत [ ४८ ট इस व्रत में फल-फूल, वस्त्र, विलेपन, खानपान आदि समस्त उपभोग - परिभोग सामग्री की मर्यादा करने का विधान है। क्योंकि भोग- परिभोग ही आत्मिक दोषों, मानसिक द्वन्द्वों रूपी प्रदूषणों के कारण हैं । अतः जैनधर्म में साधुओं के लिए तो इन्हें पूर्ण त्याज्य ही कहा गया है। गृहस्थ की वृद्धि के लिए भी भोगों की वृद्धि को हेय माना गया है और इन्हें सीमित मर्यादित रखने का विधान है। जैन दर्शन का मानना है कि उपभोगवादी संस्कृति ही समस्त दोषों व प्रदूषणों की जननी है। अतः जब तक संस्कृति का आधार उपभोग रहेगा तब तक प्रदूषण भी बना रहेगा। कारण यह किसी वस्तु का दुरुपयोग करने से ही प्रदूषण पैदा होता है। वस्तु के सदुपयोग से वस्तु का जितना उपयोग होता है, उससे अधिक उसका उत्पादन होता है। उसका अनावश्यक व्यय नहीं होता है। भोगवादी संस्कृति पशुता से भी निम्न स्तर की स्थिति की द्योतक है, कारण यह कि पशुप्रकृति के अनुरूप चलता है, प्रकृति को हानि नहीं पहुँचाता है। जैसे पशु- पक्षी भूख लगने पर ही खाते हैं, भूख नहीं होने पर नहीं खाते हैं । इस प्रकार प्रकृति का संतुलन बना रहता है। परंतु मनुष्य भूख न होने पर भी स्वाद के वशीभूत हो भोजन कर लेता है। अर्थात् मनुष्य का जीवन प्रकृति के अधीन नहीं है । वह प्रकृति से अपने को ऊपर उठाने में स्वतंत्र है। यही मानव-जीवन की विशेषता भी है। मानव इस स्वतंत्रता का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों कर सकता - Personal Use Only Broerde www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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