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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार जगत् सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहने लगा और जो लोग उसकी मान्यताओं के विपरीत मान्यता रखते थे उनको मिथ्यावादी कहने लगा और उनकी मान्यता को मिथ्यादर्शन। इस प्रकार सम्यग्दर्शन शब्द तत्वार्थश्रद्धान् (जीव और जगत् के स्वरूप की) के अर्थ में अभिरूत हुआ। लेकिन तत्त्वार्थश्रद्धान के अर्थ में भी सम्यग्दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था। यद्यपि उसकी भावना में दिशा बदल चुकी थी, उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हो गया था लेकिन वह श्रद्धा थी तत्त्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी । श्रमण परम्परा में सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ ही ग्राह्य था जो बाद में तत्त्वार्थश्रद्धान् के रूप में विकसित हुआ यहाँ तक तो श्रद्धा में बौद्धिक पक्ष निहित था, श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। लेकिन जैसे-जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और बौद्ध श्रमण परम्पराओं पर भी पड़ा। तत्वार्थ की श्रद्धा जब 'बुद्ध' और 'जिन' पर केन्द्रित होने लगी- वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गई जिसने जैन और बौद्ध परम्पराओं में भक्ति के तत्व का वपन किया । ३६ मेरी अपनी दृष्टि में आगम एवं पिटक ग्रन्थों के संकलन एवं लिपिबद्ध होने तक यह सब कुछ हो चुका था। अतः आगम और पिटक ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन का भाषाशास्त्रीय विवेचन पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ ही उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है, लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र वीतराग पुरुष का ही हो सकता है, जहाँ तक व्यक्ति राग और द्वेष से युक्त है उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं हो सकता। इस अर्थ को स्वीकार करने पर यथार्थ दृष्टिकोण तो साधनावस्था में सम्भव नहीं होगा, क्योंकि साधना की अवस्था सरागता की अवस्था है। साधक- आत्मा में तो राग और द्वेष दोनों की उपस्थिति होती है, साधक तो साधना ही इसलिए कर रहा है कि यह इन दोनों से मुक्त हो, इस प्रकार यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र सिद्धावस्था में होगा। लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण की आवश्यकता तो साधक के लिए है, सिद्ध को तो वह स्वाभाविक रूप में प्राप्त है। यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति का व्यवहार एवं साधना सम्यक् नहीं हो सकती अथवा अयथार्थ दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन के व्यवहार को सम्यक् नहीं बना सकता है। यहाँ एक समस्या उत्पन्न होती है यथार्थ दृष्टिकोण का साधनात्मक जीवन में अभाव होता है और बिना यथार्थ दृष्टिकोण के साधना हो नहीं सकती। यह समस्या हमें ऐसी स्थिति में डाल देती कि जहाँ हमें साधना मार्ग की सम्भावना को ही अस्वीकृत करना होता है । यथार्थ दृष्टिकोण के बिना साधना सम्भव नहीं और यथार्थ दृष्टिकोण साधना काल में हो नहीं सकता । लेकिन इस धारणा में एक भ्रान्ति है, वह यह कि साधना मार्ग के लिए, दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, राग-द्वेष से पूर्ण विमुक्त दृष्टि का होना आवश्यक नहीं है, मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति अययार्थता को जाने और उसके कारण को जाने ऐसा साधक यथार्थता को नहीं जानते हुए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य मानता है और उसके कारण को जानता है अतः वह भ्रान्त नहीं है, असत्य के Jain Education International कारण को जानने के कारण वह उसका निराकरण कर सत्य को पा सकेगा। यद्यपि पूर्ण यथार्थ दृष्टि तो एक साधक व्यक्ति में सम्भव नहीं है, फिर भी उसकी राग-द्वेषात्मक वृत्तियों में जब स्वाभाविक रूप से कमी हो जाती है तो इस स्वाभाविक परिवर्तन के कारण पूर्वानुभूति और पश्चानुभूति में अन्तर ज्ञात होता है और इस अन्तर के कारण के चिन्तन में उसे दो बातें मिल जाती हैं- एक तो यह कि उसका दृष्टिकोण दूषित है और उसकी दृष्टि की दूषितता का अमुक कारण है। यद्यपि यहाँ सत्य तो प्राप्त नहीं होता लेकिन अपनी असत्यता और उसके कारण का बोध हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप उसमें सत्याभीप्सा जाग्रत हो जाती है। यही सत्याभीप्सा उसे सत्य या यथार्थता के निकट पहुंचती है और जितने अंश में वह यथार्थता के निकट पहुँचाता है उतने ही अंश में उसका ज्ञान और चारित्र शुद्ध होता जाता है। ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः राग और द्वेष में क्रमशः कमी होती है और उसके फलस्वरूप उसके दृष्टिकोण में और अधिक यथार्थता आ जाती है। इसी प्रकार क्रमशः व्यक्ति स्वत: ही साधना की चरम स्थिति में पहुँच जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है वैसे-वैसे द्रष्टा उसमें प्रतिबिम्बित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है, उसी प्रकार अन्तर में ज्यों-ज्यों तत्त्वरुचि जाग्रत होती है त्यों-त्यों तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता जाता है इसे जैन परिभाषा में प्रत्येकबुद्ध (स्वतः ही यथार्थता को जानने वाले) का साधना मार्ग कहते हैं। लेकिन प्रत्येक सामान्य साधक यथार्थ दृष्टिकोण को इस प्रकार प्राप्त नहीं करता है और उसके लिए यह सम्भव नही है; सत्य की स्वानुभूति का मार्ग कठिन है सत्य को स्वयं जानने की विधि की अपेक्षा दूसरा सहज मार्ग है और वह यह कि जिन्होंने स्वानुभूति से सत्य को जानकर उसका जो भी स्वरूप बताया है, उसको मानकर चलना । इसे ही जैनशाखकारों ने तत्त्वार्थश्रद्धान् कहा है अर्थात् यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त वीतराग ने अपने यथार्थ दृष्टिकोण में सत्ता का जो स्वरूप प्रकट किया है, उसे स्वीकार कर लेना। मान लीजिए कोई व्यक्ति पित्त विकार से पीड़ित है, अब ऐसी स्थिति में यह किसी श्वेत वस्तु के यथार्थ ज्ञान से वंचित होगा। उसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करने के दो मार्ग हो सकते है पहला मार्ग यह है कि उसकी बीमारी में स्वाभाविक रूप से जब कुछ कमी हो जाये और वह अपनी पूर्व और पश्चात् की अनुभूति में अन्तर पाकर अपने रोग को जाने और प्रयासों द्वारा उसे शान्त कर वस्तु के यथार्थस्वरूप का बोध पा जाये दूसरी स्थिति में जब किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा उसे यह बताया जावे कि वह श्वेत वस्तु को पीत वर्ण की देख रहा है। यहाँ पर इस स्वस्थ दृष्टि वाले व्यक्ति की बात को स्वीकार कर लेने पर भी उसे अपनी रुग्णावस्था या अपनी दृष्टि की दूषितता का ज्ञान हो जाता है और साथ ही वह वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप में जान भी लेता है। सम्यग्दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थश्रद्धान् उनमें वास्तविकता की दृष्टि से अन्तर नहीं होता है अन्तर होता है उनको उपलब्धि की विधि में। एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी ७८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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