________________
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
श्री जिनेश्वर भगवान द्वारा प्ररूपित बारह अंगों (द्वादशांगी) को पण्डित पुरुष स्वाध्याय कहते हैं। उनका उपदेश करने वाले उपाध्याय कहलाते हैं। अर्थात् "उप समीपे अधि वसनात् श्रुतस्यायो लाभो भवति येभ्यस्ते उपाध्यायाः " यानी जिनके पास निवास करने से श्रुत (ज्ञान) का आय यानी लाभ हो उन्हें उपाध्याय १२ कहते हैं।
श्री श्रमण-संघ में आचार्य महाराज के पश्चात् महत्त्वपूर्ण स्थान श्रीउपाध्यायजी महाराज का होता है। वे संघस्थ मुनियों को द्वादशांगी का मूल से अर्थ से और भावार्थ से ज्ञान करवाते हैं। श्रमणों को आचार-विचार में प्रवीण करते और चरित्र - पालन के समस्त पहलुओं तथा उत्सर्ग-अपवाद का ज्ञान कराते हैं। यौं तो श्रीउपाध्यायजी महाराज साधु होने से . के सत्ताईस गुणों के धारक हैं ही, साधु तथापि उनके पच्चीस गुण इस प्रकार दिखलाए गये हैं
आचारांग, सूत्रकृतांगादि ग्यारह अंग, औपपातिकादि बारह अंग, इन तेईस आगमों के मर्म को जानने वाले तथा उनका विधिपूर्वक मुनिवरों को अध्ययन कराने वाले और चरण - सित्तरी तथा करण - सित्तरी इन पच्चीस गुणों के धारक श्रीउपाध्यायजी महाराज होते हैं। ११ अंग और १२ उपांगों का वर्णन अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग की प्रस्तावना में आया है । वहीं देखना चाहिये। चरण- सित्तरी और करण - सित्तरी इस प्रकार हैंचरण- सित्तरी :
वय समण संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तिओ । नाणाइ तियं तब कोहं, निग्गहाई चरणमेयं ॥
५ महाव्रत, १० प्रकार (क्षमा, मार्दव, आर्जव, निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचन और ब्रह्मचर्य ) का यतिधर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार का वैयावृत्य, ९ प्रकार का ब्रह्मचर्य, ३ प्रकार का ज्ञान, १२ प्रकार का तप तथा ४ कषायनिग्रह | इस प्रकार सत्तर भेद चरण- सित्तरी के होते हैं। करण - सित्तरी :
पिंडविसोहि समिई, भावय पड़िमाय इन्दिय निरोहो । पsिहण गुत्तिओ अभिग्गहं चेव करणं तु ।।
४ पिंडविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ प्रतिमा, ५ इन्द्रियों का निग्रह, २५ पडिलेहण, ३ गुप्ति तथा ४ अभिग्रह । इस प्रकार सत्तर भेद करण- सित्तरी के होते हैं।
Jain Education International
For Private
चरण- सित्तरी और करण - सित्तरी को श्रीउपाध्यायजी महाराज स्वयं पालते हैं और श्रमण संघ को पलावाते हुए विचरण करते हैं। कोई श्रमण यदि चरित्र - पालन में शिथिल होता है, तो उसे सारणा, वारणा, चोयणा और पडिचोयणा द्वारा समझा कर पुनः उसे अंगीकृत संयम धर्मपालन में प्रयत्नशील करते हैं। यदि कोई परसमय का पण्डित किसी प्रकार की चर्चा - वार्ता करने के लिए आता है, तो उसे आप अपने ज्ञान-बल से निरुत्तर करते हैं और स्वसमय के महत्त्व को बढ़ाते हैं । ऐसे अनेक गुणसम्पन्न श्री उपाध्यायजी महाराज के गुणों का स्मरण - वन्दन करते हुए, आचार्यप्रवर श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजी महाराज ने श्रीसिद्धिचक्र (नवपद) पूजन में फरमाया है -
सुत्ताण पाठं सुपरंपराओ, जहागयं तं भविणं चिराओ । जे साहगा ते उवझाय राया, नमो नमो तस्स पदस्स पाया ।। १ ।। यता जस अवस्स अत्थि, विहार जेसिं सुय वज्जणत्थि । उस्सग्गियरेण समग्गभासी, दिंतु सुहं वायगणाण रासी ।। २ ।। (सूत्राणां पाठं सुपरंपरातः यथागतं तं भव्यानां निवेदयन्ति । ये साधकाः ते उपाध्यायराजाः नमो नमः तेषां पद्भ्यः ।। गीतार्थता यस्यावश्यमस्ति विचाराः येषां श्रुतवर्जिताः न सन्ति । उपसर्गापवादाभ्याम् सन्मार्गप्रकाशी ददातु सुखं वाचकगणानां राशिः । । )
जो परम्परा से आए हुए सूत्रों के अर्थ को यथार्थ रूप से भव्य जनों को कहते हैं। जो साधक हैं, वे उपाध्याय राजा हैं, उन्हीं के चरण-कमलों में बार-बार नमस्कार हो । गीतार्थता जिनके वश में है। जिनके आचार-विचार शास्त्रानुगामी हैं । जो उत्सर्ग और अपवाद को ध्यान में रखकर सन्मार्ग का बोध देते हैं। वे उपाध्याय महाराज हम को सब सुख ।
साधु :
११
:
श्री नमस्कार - मंत्र के पाँचवें पद पर श्रीसाधु महाराज विराजमान हैं। संसार के समस्त प्रपंचों को छोड़कर पापजन्य क्रियाकलापों का त्याग करके, पाँच महाव्रत पालन रूप वीर प्रतिज्ञा कर समस्त जीवों पर सम भाववृत्ति धारण करने वाले, सब को निजात्मवत् समझ कर किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो, इस प्रकार से चलने वाले, मनसा वाचा कर्मणा किसी का भी अनिष्ट नहीं चाहने वाले एवं समभाव - साधना में संलग्न, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त दशा में रहने वाले, प्रमाद स्थानों असमाधि स्थानों तथा कषायों के आगमन कारणों
-
Personal Use Only
OMGOMGOND
www.jainelibrary.org