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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म हे भगवन् ? तीर्थंकर-सम्बन्धी आज्ञा का उल्लंघन नहीं प्रश्र - आचार्य सर्वज्ञ नहीं हैं, फिर भी उनको 'तित्थयर करता कि आचार्य सम्बन्धी? गौतम? नामाचार्य, स्थापनाचार्य, समो सूरि' कहकर तीर्थंकर की उपमा क्यों दी गई है? क्या यह द्रव्याचार्य और भावाचार्य इस प्रकार चार प्रकार के आचार्य अनुचित नहीं है? कहे गये हैं। उनमें से भावाचार्य तीर्थंकरसमान होने से उनकी उत्तर - श्रमण भगवान महावीर देव ने श्री गौतम स्वामी आज्ञा का कदापि उल्लंघन नहीं करना। के प्रश्न के उत्तर में जो भावाचार्य को तीर्थंकर के समान कहा है, इस प्रकार आचार्य शासन के आधारस्तम्भ एवं परम वह अनचित नहीं, अपित उचित है, क्योंकि भावाचार्य आगमज्ञ माननीय हैं। आचार्य महाराज के छत्तीस गुण शास्त्रों में इस प्रकार एवं समयज्ञ होते हैं। प्रत्येक प्रकार की आचरणा का आचरण वे आये हैं - आगमानुसार ही कहते हैं। आगमोक्त वस्तु तत्व को निर्भयतापूर्वक पंचिंदिय - संवरणो, तह नवविह बम्भचेर गत्तिधरो। जनता में तर्कयुक्त रीति से प्रकाशित करते हैं। कर्म रोग से चउविह कसाय मुक्को, इअ अठ्ठारस गुणेहिं संजुत्तो ।।१।। आक्रांत जीवों को जिनेन्द्रशरण देकर शुद्ध देव गुरु और धर्म रूप पंच महव्वय जुत्तो, पंचविहायार पालण समत्थो। उपास्यत्रयी, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् चरित्र रूप पंच समिओ ति गुत्तो, छत्तीस गुणो गुरु मज्झ ।।२।। तत्त्वत्रयी का दर्शन कराकर जीवनोत्कर्ष का मार्ग दिखलाते हैं। अतः वे अपने लिए तो तीर्थंकर के समान ही हैं। इसी से उन ___पाँचों इन्द्रियों को वश में रखने वाले अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय, भावाचार्य महाराज को यह उपमा दी गई है। शेष नामाचार्य, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय इन पाँचों को द्रव्याचार्य और स्थापनाचार्य को नहीं। आचार्यवर्य श्रीमद् २२ विकारों से संवृत करने वाले, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य-गुप्ती राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने भी नवपदपूजा में लिखा है - के धारक। चारों कषायों से मुक्त। इन अठारह गणों से युक्त जिणाण आणम्मि मणं हि जस्स णमो णमो सूरि दिवायरस्स। तथा सर्वतः प्राणातिपात-विरमण, सर्वत: मृषावाद-विरमण, सर्वतः छत्तीस वग्गेण गुणायरस्स, आयारमग्गं सुपयासयस्स ।। अदत्तादान-विरमण, सर्वतः मैथुन-विरमण और सर्वतः परिग्रह सूरिवरा तित्थयरा सरीसा, जिणिन्दमग्गं मिणयंति सिस्सा। -विरमण इन पाँचों महाव्रतों से युक्त पाँच प्रकार के आचारों का सुतत्थ भावाण समं पयासी, ममं मणंसी वसियो णिरासी ।। पालन करने में समर्थ पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों से युक्त इस प्रकार छत्तीस गुणों के धारक गुरु अर्थात् आचार्य महाराज (जिनस्य आज्ञायां यस्य मनो वर्तते तस्मै सूरिदिवाकराय नमो नमः हमारे गुरु हैं। षत्रिशद्वर्गेण गुणाकराय आचारमार्गस्य सुप्रकाशकाय - १४४४ ग्रन्थ-प्रणेता जैन-शासन-नभोमणि आचार्य-वर्य सूरिवराछः तीर्थंकराः सदृशाः जिनेन्द्रमार्गं वहन्ति शिरसा। श्रीमद हरिभद्र सरिजी महाराज ने संबोध प्रकरण में आचार्य के सूत्रार्थ भावानां सममेव प्रकाशकः मम मनसि वसितोऽनिराशी।) ३६ गुणों का वर्णन अनेक प्रकार से तथा गुरुपद का विवेचन जिन का अन्तःकरण जिनेश्वरों की आज्ञा में रत है। उन भी विस्तारपूर्वक किया है। गच्छाचार पयन्ना में भी आचार्य के आचार्यवयों को बार-बार नमस्कार हो जो आचार्य छत्तीस गुणों अतिशयों तथा योग्यायोग्यत्व पर विस्तृत विवेचन किया है। के धारक हैं। आचारका मार्ग जिन्होंने दिखलाया है । वे आचार्य प्रश्न - नमो आयरियाणं के स्थान पर नमो आइरियाणं तीर्थंकर के समान है, जो जिनेन्द्र भगवान के शासन को शिरसा क्यों नहीं बोला जाता है ? वहन करते हैं। जो सूत्रों के अर्थ को एवं मर्म को जनता के सामने रखते हैं। ऐसे आचार्य महाराज मेरे (हमारे) हृदय में वास करें। उत्तर - महानिशीथ-सूत्र के तीसरे अध्ययन में, पंचमांग भगवतीसूत्र के मंगलाचरण में, आवश्यकसूत्रनियुक्ति और उपाध्याय गच्छाचार पयन्ना आदि अनेक आगमग्रन्थों में आयरियाणं ही श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में कहा है - लिखा है। न कि आइरियाणं। अर्थशुद्धि की दृष्टि से भी आयरियाणं बार संगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहियो बहेहिं। ही लिखना ठीक है। तं उवइ सन्ति जम्हा, उवज्झाया तेण वुञ्चति।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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