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________________ - तीन्द्रसूरि मारकगृत्य - जैन आगम एवं साहित्य प्रास्ताविक बातें थीं, जिससे यह समझा जा सके कि समस्या क्या अर्थ में लिखा है- “एक योजन तक भगवान् की वाणी स्वयमेव है, कैसे उत्पन्न हुई और प्रस्तुत स्पष्टीकरण की क्या आवश्यकता है? सुनाई देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्यध्वनि का हमें तो व्यक्तियों के कथनों या वक्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के प्रकाश विस्तार मगध जाति के देव करते हैं। अत: अर्धमागधी भाषा देवकृत में इसकी समीक्षा करनी है कि आगमों की मूलभाषा क्या थी और है। (षट्प्राभृतम्, चतुर्थ बोध गाथा ३२, पाहुडटीका, पृ०१७६)। अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है? मात्र यही नहीं वर्तमान में भी दिगम्बर परम्परा के महान् संत एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य मुनि श्री प्रमाणसागरजी आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी अपनी पुस्तक 'जैनर्धमदर्शन' में लिखते हैं कि 'उन भगवान महावीर यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्मक्षेत्र और कार्यक्षेत्र का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ। दोनों ही मुख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में ही था, अत: जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह मानकर चल यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा को बोला होगा वह समीपवर्ती रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में हुआ था और इसी भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी ही रही होगी। में उनके उपदेशों के आधार पर आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी मातृभाषा से अप्रभावित नहीं होती शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों है। पुनः श्वेताम्बर परम्परा में मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध किया जा रहा है? है, उनमें अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है यह तो आगमिक प्रमाणों की चर्चा हुई। व्यावहारिक एवं कि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिये थे। ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं - इस सम्बन्ध में अर्धमागधी आगम-साहित्य से कुछ प्रमाण प्रस्तुत १. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिये तो यह स्वाभाविक किये जा रहे हैं यथा - है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा। १. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। - समवायाङ्ग, अत: सिद्ध है कि आगमों की मूल भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित समवाय ३४, सूत्र २२। मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है, यह मानना होगा। २. तए णं समणे भगवं महावीरे कुणिअस्स भंभसारपुत्तस्स अद्धमागहीए २. इसके विपरीत शौरसेनी आगमतुल्य मान्य ग्रन्थों में से किसी एक भासाए भासत्ति अरिहाधम्म परिकहइ। - औपपातिकसूत्र। भी ग्रन्थ में एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं है, जिससे यह प्रतिध्वनित ३. गोयमा! देवाणं अदमागहीए भासाए भासंति सवियणं अद्धमागहा भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें भासा भामिना सज्जति।- भगवई, लाडनूं : शतक ५, मात्र यह उल्लेख है कि तीर्थङ्करों की जो वाणी खिरती है, वह उद्देशक ४, सूत्र । सर्वभाषारूप परिणत होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है ४. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तमाहणस्स देवाणंदा माहणीए कि उनकी वाणी जनसाधारण को आसानी से समझ में आती तीसे य महति महलियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए.... थी। वह लोकवाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की क्षेत्रीय सव्व भासणुगामणिए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमगहाए बोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण था । उसे भासाइ धम्म परिकहइ। - भगवई लाडनूं, शतक ९, उद्देशक मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। ३३, सूत्र १४९। ३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, उसका वहाँ ५. तए णं समणे भगवं महावीरे जामालिस्स खत्तियकुमारस्स.... की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है। प्राचीन स्तर के जैन अद्धमगाहाए भासाए भासइ धम्म परिकहइ। -भगवई, लाडनूं आगम यथा आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग इसिभासियइं (ऋषिभाषित), : शतक ९, उद्देशक ३३, सूत्र १६३। उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र सव्वसत्तसमदरिसीहिं अद्धमागहीए भासाए सुत्तं उवदि→। - में रचित हैं और उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएँ आचाराङ्गचूर्णि, जिनदासगणि, पृ० २५५ । हैं। मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं है कि महावीर मात्र इतना ही नहीं, दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द ने बिहार, बङ्गाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार किया के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका हो। अतः उनकी भाषा अर्धमागधी ही रही होगी। में दिगम्बर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते हैं कि भगवान् महावीर ४. पुन: आगमों की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में और दूसरी खण्डगिरि ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया। प्रमाण के लिये उस (उड़ीसा) में हुई, ये दोनों क्षेत्र मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित टीका के अनुवाद का वह अंश प्रस्तुत है – अर्ध मगध देश हैं, अत: कम से कम प्रथम और द्वितीय वाचना के समय तक भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है। अर्थात् ई.पू. दूसरी शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने शङ्का- अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है, का या उससे प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। क्योंकि भगवान् की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर- मगध देव यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म एवं विद्या का केन्द्र के सान्निध्य से होने से आचार्य प्रभाचन्द्र ने नन्दीश्वर भक्ति के पाटलिपुत्र से हटकर लगभग ई.पू. प्रथम शती में मथुरा बना तो उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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